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________________ पत्रावलि-१ मन मारनकी औषधी, सद्गुरु देत दिखाय; इच्छत परमानंदको, सो सद्गुरुशरणे जाय. ४ गुरु बिन ज्ञान न ऊपजे, गुरु बिन मिले न भेद; गुरु बिन संशय ना मिटे, जय! जय! जय! गुरुदेव. ५ तुलसी जगमें आयके, कर लीजे दो काम; देनेको टुकडा भला, लेनेको हरिनाम. ६ कहे कबीर कमालकू, दो बातें लिख लेय; कर साहबकी बंदगी, भूखेको कुछ देय. ७ लेनेको हरिनाम है, देनेको अन्नदान; तिरनेको आधीनता, बूडनेको अभिमान. ८ मुफत मनुषतन पायके, जो न भजत गुरुराज; सो पीछे पछतायेंगे, बहुत घसेंगे हाथ. ९ सतिया, सत नव छोडिये, सत छोड्ये पत जाय; सतकी बांधी लक्षमी, फिर मिलेगी आय. १० जूनागढ़, ज्येष्ठ सुदी ७, बुध, १९७२ 'सद्गुरु-सम संसारमां, हितकारी को नांहि; कहे प्रीतम भवपाशतें, छोड़ावे पलमांहि. १ गुरुको माने मानवी, देखी देह-वे'वार; कहे प्रीतम संशय नहीं, पडे (ते) नरक मोझार. २ *कक्का कर सद्गुरुनो संग, हृदयकमळमां लागे रंग, अंतरमां अजवाळु थाय, माया मनथी दूर पलाय; लिंगवासना होये भंग, कक्का कर सद्गुरुनो संग. ३ यय्या ओळखाण नहि जेहने, संशय शोक सदा तेहने, आतमबुद्धि न ऊपजे कदा, आशा तृष्णा बहु आपदा, देहदृष्टि देखे देहने, यय्या ओळखाण नहि जेहने. ४ आत्माको लक्ष्यमें रखना योग्य है, कर्तव्य है। स्मृतिमें लाकर याद करियेगा। ___ + अर्थ-प्रीतमदास कहते हैं कि सद्गुरुके समान संसारमें अन्य कोई हितकारी नहीं है। क्योंकि वे एक पलमें जीवको भवबंधनसे मुक्त करा लेते हैं ॥१॥ जो गुरुको उनका बाह्य दैहिक व्यवहार देखकर सामान्य मनुष्य मानता है वह निःसंशय नरकमें जायेगा ॥२॥ ___ * अर्थ-प्रीतमदास कहते हैं कि हे जीव! तू सद्गुरुका संग कर जिससे हृदयकमल आत्मार्थसे रंजित हो जाय, हृदयमें आत्मज्ञानका प्रकाश हो, माया मनसे दूर भागे और लिंगवासनाका नाश हो जाय ॥३॥ जिसे सद्गुरुकी पहचान नहीं है वह सदा संशय-शोकमें डूबा रहता है, उसे आत्मबुद्धि कभी उत्पन्न नहीं हो सकती, वह आशातृष्णासे हमेशा दुःखी रहता है और देहदृष्टि होनेसे उसे सभीकी देह ही दिखाई देती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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