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________________ पत्रावलि-१ १२ नडियाद, ज्येष्ठ वदी १२, शुक्र, १९७१ "आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे"२ द्रष्टा सम भेदज्ञानके, संयमी बनो, संयमी बनो। हे आर्य! शांतभावसे रहें। शांतिः शांतिः नडियाद, अषाढ़ वदी ९, बुध, १९७१ आत्मसमाधि, आत्मभावका विचार और उसमें वृत्ति करनेके लिए पुरुषार्थ है। मुख्य तो वृत्तिको परभावमें जानेसे रोकना, आत्मभावमें रखना। दोहा- “जनम-मरणका दुख सकल, मेटण समरथ सोय; ज्ञानी सो ही समरिये, ता सम ओर न कोय. १ ज्ञानी सद्गुरु बिन मिला, माया मारे कोड; चोरासी लख जीवडा, सकल रह्या कर जोड. २ नडियाद, आश्विन सुदी ८, १९७१ हे प्रभु! हरीच्छासे शांत रहेंगे। धीरजसे, जैसा होने योग्य होगा सो हो जाय, उसे देखते रहेंगेद्रष्टाके रूपमें। नडियाद, ता.९-८-१५,सं.१९७१ आपको जो सत्मार्गकी इच्छा है, जिसे आपने अन्तःकरणसे दर्शायी है, वह भावना कर्तव्य है। भविष्यमें आपको उस भावनासे लाभ होगा ऐसा लगता है। सत्संग बड़ी वस्तु है यह आपके लिए विचारणीय है। प्राणीमात्रको सुखकी इच्छा है, और दुःखोंसे मुक्त होना है ऐसा विचारकर अनेक प्रयत्न करते हैं, अथवा अनेक दर्शनसे जीव दुःखसे मुक्त होते हैं ऐसा समझकर अपने मतका आग्रह कर धर्म करते हैं, परंतु 'धर्म' क्या वस्तु है इसका उन जीवोंको भान नहीं है। इस विषयमें *वचनामृतमें श्री कृपालुदेवने फरमाया है। यह पत्र पढ़कर आपको जो समझमें आये वह बताइयेगा। 'आतमभावना भावतां जीव लहे केवलज्ञान रे' + + काणीसा, चैत्र सुदी ४, गुरु, १९७२ इसके सिवा, अब आपको स्मृतिमें रहनेके लिए सूचना लिख भेजता हूँ। हे प्रभु! आपका हृदय कोमल है, सरल, बहुत भावनाशील है, अतः लिखता हूँ हम ऐसी विशेष आज्ञा नहीं देते कि जो आत्माको बाधक हो । साक्षात् अपने आत्माके समान जानकर, अन्यको बाधक हो ऐसी आज्ञा हम नहीं देते, इसी तरह हमें भी बाधक हो वैसा नहीं * पत्रांक ७५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
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