SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपदेशामृत काल, भावके अनुसार जिस क्षेत्रमें विचरनेसे आत्महित होता हो उस प्रकार अप्रतिबद्धता, असंगता, जगतके सर्व भावोंके प्रति उदासीनता रखकर, हृदयको निर्मल कर, सम्पूर्ण विश्वको चैतन्यवत् देखनेके विचारमें मनको जोड़ें। और श्री सद्गुरुकी मुद्राका वीतराग भावसे ध्यानमें अवलोकन करते रहें। सुख-समाधि शांतिसे विचरें। ____ मुनि...को, मेरे आत्मभावपूर्वक यथायोग्य नमस्कार प्राप्त हों, ऐसा कहकर कहियेगा : “आप तो महा गुणी हैं! परम आत्मार्थी हैं! आपश्रीने कृपालुदेव प्रभुकी श्रद्धा, रुचि, आस्था ग्रहण की, अतः आप कृतकृत्य! धन्य धन्य हैं! धन्यवादपूर्वक परम उल्लासभावसे आप आत्माके प्रति नमस्कार हो! नमस्कार हो! आप तो अवसरको पहचानते हैं। वहाँ मुनिश्री मोहनलालजीके पास रहकर यथासम्भव आत्महित, कल्याण हो वैसा करें। आत्माका कल्याण करें यही मेरी आशिष है, आपकी जय हो!" १० __ नडियाद, सं.१९७१ ई.स.१९१५ तत् ॐ सत् आपश्री सदा आनन्दमें रहें। कृपालुदेव सबकी सँभाल लेते हैं। द्रष्टा बनकर देखते रहें। जगतके सर्व भावोंको भूल जानेका प्रयत्न करें। सर्व भावोंके प्रति उदासीनता अर्थात् समभाव रखकर, हृदयको निर्मल करके, सारे जगतको चैतन्यवत् देखनेके विचारमें मनको लगायें। इन प्रभु अर्थात् कृपालुदेव श्रीसद्गुरु प्रभुकी मुद्राछविको हृदयमंदिरमें स्थापन कर, खड़ी कर, मनको वहाँ पिरो देवें। परमशुद्ध चैतन्यके निवासधामरूप श्रीसद्गुरुकी पवित्र देह, उसका वीतरागभावपूर्वक ध्यान करनेसे भी जीव शांतदशाको प्राप्त होता है, यह भूलने योग्य नहीं है। गुरु कृपासे सब आ मिलेगा। नडियाद,सं.१९७१ ता.१०-३-१५, शनि यह देह आत्मार्थमें, आत्मकल्याणमें बिताना है यह मुमुक्षुओंको भूलने जैसा नहीं है। जीवने अनन्त देह धारण किये हैं। जो जो देह धारण किये उन उन देहोंमें उसने ममत्वबुद्धि की है, और उसके साथ देहके संबंधी-स्त्री, पुत्र, पिता, माता, भाई, कुटुम्बादिमें गाढ़ स्नेहसे ममत्वबुद्धि कर अनन्तकालसे आत्माको भटकना पड़ा है। परंतु इतनी देह यदि सर्व ममत्व छोड़कर आत्मार्थमें लगाये तो नवीन देह धारण करना नहीं पड़ेगा। इस ममत्वको छोड़नेका निमित्त सत्संग, सत्शास्त्र है। निवृत्तिके समय उसका योग मिलावें। यहाँ सत्समागममें जंगलमें निवृत्तिके समय हुई बातें विशेष विचारणीय है। परमात्मा भक्तोंको मोक्ष देनेकी अपेक्षा भक्ति देनेमें कृपण है, और भक्तको तो परमात्माकी भक्ति ही उसका जीवन है। बस यही। "शुद्ध बुद्ध चैतन्यघन, स्वयंज्योति सुखधाम । बीजुं कहीए केटलुं ? कर विचार तो पाम ॥" जीवको बोधकी आवश्यकता है जी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001941
Book TitleUpdeshamrut
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShrimad Rajchandra Ashram Agas
PublisherShrimad Rajchandra Ashram
Publication Year2004
Total Pages594
LanguageHindi, Prakrit
ClassificationBook_Devnagari, sermon, & Rajchandra
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy