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पत्रावलि-१ नहीं लगती। उसमें प्रारब्ध, संचय अनुसार आ मिलता है। उसे हरि-इच्छासे सुखदायक मानते हैं। उदयाधीन वर्तन करते हुए समभावी रहा जा सके ऐसे पुरुषार्थका विचार रहता है।
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७ नडियाद, अषाढ़ वदी ११, रवि, १९७०
___ ता.१९-७-१४ तत् सत् परमकृपालुने इसे दुषमकाल कहा है ऐसा यथार्थ अनुभव हो रहा है। इस कालको देखते हुए खिन्न होने जैसा है। आपने लिखा कि अपना करके चले जाना सो ऐसा ही है। अब अन्यत्र दृष्टि करना योग्य नहीं। आकाश फटनेपर थिगली कहाँ लगाना? ऐसा आपने लिखा था सो भी बराबर है।
उमरेठ, मार्गशीर्ष, १९७१
तत् ॐ सत् महात्मा पुरुषोंके देहकी रक्षा आत्मार्थी भाविक मुमुक्षु पुरुषको अवश्य करनी चाहिए। परंतु कालकी कठिनताके कारण क्या लिखू ? लिखा नहीं जा सकता। *"पर्याय दृष्टि न दीजीए, एक ज कनक अभंग रे।' हे प्रभु! धूप वहाँ छाया। जैसे गाड़ीका पहिया गोल घूमता है तब ऊपरका नीचे
और नीचेका ऊपर होता रहता है, वैसे ही साता-असाता उदयरूप कर्मको भाविक आत्मा देखता रहता है, उसमें हर्षविषाद या खेद नहीं करता। समभावपूर्वक भोगते हुए शांतिसे साक्षीरूपसे रहता है। आप तो एकाकी भावसे द्रष्टारूप आत्मा होकर रहते हैं, शांत, दांत गुणी हैं। धन्य है आप प्रभुको! ऐसे सत्पुरुषकी पहचान इस जगतके जीवोंको होना बहुत कठिन है। किसी महान पुरुषके योगसे उसका पता लगता है। हे प्रभु! सत्पुरुषकी भक्ति, उनके गुणोंका चिंतन, उनकी श्रद्धा, उनके वचनामृतका पान-भक्ति करता है इसलिये वह हमें मान्य है। ऐसे भाविक आत्माओंको नमस्कार! वे कृतकृत्य! धन्य हैं! धन्य हैं!
हे प्रभु! सनत्कुमार चक्रवर्तीको सोलह महारोगोंका उदय था। उन महात्माने समभावसे सहन कर अपना कल्याण कर लिया। वैसे आप भी शांतभावसे वेदनाको भोगकर, परीषह-उपसर्गको धीरजसे सहन कर आत्मकल्याण करते हैं अतः आपको धन्य! धन्य! कहकर वंदन करता हूँ।
हे प्रभु! अब तो हम दोनों एक क्षेत्र पर सन्तसमागममें साता-असाता, सुख या दुःख समपरिणामसे भोगकर काल व्यतीत करेंगे, ऐसा मनमें आ जाता है।
चकलासी, मार्गशीर्ष वदी २, शनि, १९७१ आपको जो सूचित करना था वह पहले पत्रमें लिखा था, अब इस पत्रसे फिर ध्यानमें लीजियेगा। लिखना यह है कि कृपालुदेव प्रभुकी आज्ञा आपको है। उसे ध्यानमें रखकर द्रव्य, क्षेत्र,
* स्वर्णकी पर्यायोंपर (सोनेकी नाना प्रकारकी, कुंडल, मुद्रिका, कंकण आदि अवस्थाओं पर) दृष्टि न करें; सर्व अवस्थाओंमें स्वर्ण तो वही है, उसका भंग (नाश) नहीं है। इसी प्रकार जीवकी नर, पशु आदि अनेक पर्यायें होती हैं परंतु सर्वत्र आत्मा वैसाका वैसा वही है, उसका नाश नहीं ।
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