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________________ तारा-दृष्टि | १३ का दूसरा अंग नियम वहाँ सधता है अर्थात् शौच, सन्तोष, तप, स्वाध्याय तथा परमात्म-चिन्तन-जीवन में फलित होते हैं।' आत्म-हितकर प्रवृत्ति में अनुद्वेग-उद्वेग का अभाव अर्थात् उत्साह तथा तत्त्वोन्मुखी जिज्ञासा उत्पन्न होती है। _ [ ४२ ] भवत्यस्यां तथाच्छिन्ना प्रीतिर्योगकथास्वलम् । ! शुद्धयोगेषु नियमाद् बहुमानश्च योगिषु ।। इस दृष्टि में योग कथा-योग सम्बन्धी चर्चा में साधक अच्छिन्नविच्छेद रहित या अखण्डित प्रीति-अभिरुचि लिए रहता है। शुद्ध योग-- निष्ठ योगियों का वह नियमपूर्वक बहुमान करता है । [ ४३ ] यथाशक्त्यपचारश्च योगवृद्धि फलप्रदः । योगिनां नियमादेव तदनुग्रहधीयुतः । शुद्ध योगनिष्ठ योगियों के बहुमान के साथ-साथ वह साधक उनके प्रति यथाशक्ति सेवा-भाव लिए रहता है-उनकी सेवा करता है। इससे उसे अपनी योग-साधना में निश्चय ही विकासात्मक फल प्राप्त होता है. तथा शुद्ध योगनिष्ठ सत्पुरुषों का अनुग्रह मिलता है। [ ४४ ] लाभान्तरफलश्चास्य श्रद्धायुक्तो हितोदयः । क्षुद्रोपद्रवहानिश्च शिष्टा-सम्मतता तथा । सेवा से और भी लाभ प्राप्त होते हैं-श्रद्धा का विकास होता है,. आत्महित का उदय होता है, क्षुद्र-तुच्छ उपद्रव मिट जाते हैं एवं शिष्टजनों से उसे मान्यता प्राप्त होती है। १ शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः। -पातंजल योगसूत्र २-३२ः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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