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________________ १२ ] योगदृष्टि समुच्चय अन्तिम यथाप्रवृत्तिकरण में अन्तर्मल की अल्पता के कारण उस -साधक के, जो ग्रन्थिभेद के लगभग सन्निकट पहुंच चुका हो, यह सारी 'स्थिति निष्पन्न होती है। [ ३६ ] अपूर्वासन्नभावेन व्यभिचारवियोगतः । तत्त्वतोऽपूर्वमेवेदमिति योगविदो विदुः । अन्तिम यथाप्रवृत्तिकरण अपूर्वकरण के साथ सन्निकटता लिए रहता है। अर्थात् अन्तिम यथाप्रवृत्तिकरण के बाद निश्चित रूप से अपूर्वकरण आता है। इसमें कोई व्यभिचार-वैपरीत्य या उलटफेर नहीं होता। अपूर्वकरण अन्तःशुद्धि की दृष्टि से अपने आप में सर्वथा वैसी नवीनता या मौलिकता लिए रहता है, जो पहले कभी निष्पन्न नहीं हुई, इसलिए उसकी 'अपूर्व' संज्ञा तत्त्वत: संगत है। योगवेत्ता ऐसा जानते हैं । [ ४० ] प्रथमं यद्गुणस्थानं सामान्येनोपणितम् । अस्यां तु तदवस्थायां मुख्यमन्वर्थयोगतः ॥ मित्रादृष्टि में आत्मगुणों की स्फुरणा के रूप में अन्तर्विकास की दिशा में जो प्रथम उद्वलन होता है, उस अवस्था से यथार्थतः प्रथम गुणस्थान की मुख्यता मानी जाती है। अर्थात् आत्म-अभ्युदय या अध्यात्मयोग की यह पहली दशा है, जिसमें यद्यपि दृष्टि तो पूर्णतया सम्यक् नहीं हो पाती पर अन्तर्जागरण तथा गुणात्मक प्रगति की यात्रा का यहाँ से शुभारम्भ हो जाता है। तारा-दृष्टि [ ४१ ] तारायां तु मनाक् स्पष्टं नियमश्च तथाविधः । अनुदगो हितारम्भे जिज्ञासा. तत्त्वगोचरा ॥ तारादृष्टि में बोध मित्रादृष्टि की अपेक्षा कुछ स्पष्ट होता है। योग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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