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- १४ | योगदृष्टि समुच्चय
[ ४५ ]
भयं नातीव भवजं तथानाभोगतोऽप्युच्चर्न
चोचिते । चाप्यनुचितक्रिया ||
कृत्यहानिर्न
इस दृष्टि में अवस्थित पुरुष को भव - जन्म मरण रूप आवागमन का अत्यन्त भय नहीं होता । उचित स्थान में कृत्य-हानि - अकार्यकारिता नहीं होती अर्थात् जहाँ जैसा करना है, वह वहाँ वैसा करता है । अनजाने भी उससे कोई अनुचित क्रिया नहीं होती
[ ४६ ] कृत्येऽधिकेऽधिकगते जिज्ञासा लाल सान्विता । तुल्ये निजे तु दिकले संत्रासो द्वेषवर्जितः ॥ गुणों में अधिक या आगे बढ़े हुए हैं, जिनके कार्य भी वैसे ही हैं, उनके प्रति साधक के मन में लालसापूर्ण- उल्लासयुक्त जिज्ञासा उत्पन्न होती है । अपने विकल - कमीयुक्त कार्य के प्रति उसके मन में द्वेषरहित संत्रास होता है अर्थात् वह अपनी कमियों के लिए अन्तर्तम में संत्रास का अनुभव करता है, मन में जरा भी उनके लिए द्व ेष भाव नहीं लाता ।
[ ४७ 1
दुःखरूपो भवः सर्व उच्छेदोऽस्य कुतः कथम् । चित्रा सतां प्रवृत्तिश्च साशेषा ज्ञायते कथम् ॥
यह सारा संसार दुःख - रूप है । किस प्रकार इसका उच्छेद हो ? सत्पुरुषों की विविध प्रकार को आश्चर्यकर सत्प्रवृत्तियों का ज्ञान कैसे हो ? साधक ऐसा सात्त्विक चिन्तन लिए रहता है ।
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[ ४८ ]
नास्माकं महती प्रज्ञा सुमहान् शास्त्रविस्तरः । शिष्टाः प्रमाणमिह तदित्यस्यां मन्यते सदा ॥
उनका चिन्तन क्रम आगे बढ़ता है हमारे में विशेष बुद्धि नहीं है, न शास्त्राध्ययन ही विस्तृत है इसलिए सत्पुरुष ही हमारे लिए प्रमाणभूत हैं ।
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