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________________ मित्रा-दृष्टि | सहजरूप में संसार के प्रति वैराग्य, द्रव्य अभिग्रह-सत्पात्र को निर्दोष आहार, औषधि, उपकरण आदि का सम्यक् दान तथा सिद्धान्त या सत् शास्त्रों का लेखन आदि योगबीज में आते हैं। [ २८ ] लेखना पूजना दानं श्रवणं वाचनोद्ग्रहः । प्रकाशनाथ स्वाध्यायश्चिन्तना भावनेति च ॥ गत (सत्ताईसवें) श्लोक में लेखना के साथ आये आदि शब्द से सत् शास्त्रों के लेखन के साथ-साथ उनकी पूजा, सत्पात्र को दान, शास्त्रश्रवण, वाचन, विधिपूर्वक-शुद्ध उपधान-क्रिया आदि द्वारा शास्त्रों का उद्ग्रहण-सम्मान आत्मार्थी जिज्ञासुजनों में शास्त्रों का प्रकाशन-प्रसार, स्वाध्याय, चिन्तन-मनन तथा पुनः-पुन: आवर्तन ग्राह्य हैं। [ २६ ] बीजश्रुतौ च संवेगात् प्रतिपत्तिः स्थिराशया । तदुपादेयभावश्च परिशुद्धो महोदयः ।। योग-बीजों के सुनने पर उत्पन्न भावोल्लास-श्रद्धोत्कर्ष से जो तद्विषयक मान्यता सुस्थिर होती है, वह भी योग-बीजों में समाविष्ट है । योग-बोजों के प्रति शुद्ध एवं समुन्नत उपादेय भाव भी योग-बीजों के अन्तर्गत है। [ ३० ] एतद्भावमले क्षीणे प्रभूते जायते नृणाम् । करोत्यव्यक्तचैतन्यो महत्कार्य न यत् क्वचित् ॥ जिन मनुष्यों का भाव-मल-आन्तरिक मलिनता अत्यन्त क्षीण हो जाती है, उनमें योग-बीज उत्पन्न होते हैं-वे योग-बीज के अधिकारी हैं। जिस मनुष्य की चेतना अव्यक्त-अजागरित- अस्फुटित है, वह योग-बीज स्वायत्त करने जैसा महत्त्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकता। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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