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८ | योगदृष्टि समुच्चय
तथाभव्यता--बीज-सिद्धि आदि की अपेक्षा से आत्मा की बहुमुखी योग्यता के परिपाक से चरमपुद्गलावर्त के समय में ही, अन्यथा नहीं, कुशल चित्त आदि योग-बीज संशुद्ध होते हैं, निपजते हैं, योगवित् ज्ञानीजन ऐसा जानते हैं, बताते हैं।
[ २५ ] उपादेयाधियात्यन्तं संज्ञाविष्कम्भणान्वितम् । फलाभिसन्धिरहितं संशुद्ध होतदीदृशम् ॥
अत्यन्त उपादेय बुद्धिपूर्वक आहार आदि संज्ञाओं के निरोध से युक्त, फल की कामना से रहित स्थिति संशुद्ध होने का लक्षण है।
[ २६ ] आचार्यादिष्वपि ह्येतद्विशुद्ध भावयोगिषु ।
वैयावृत्यं च विधिवच्छुद्धाशयविशेषतः ॥
भावयोगी- यथार्थतः जिनकी आत्मा योग- अध्यात्म-योग में परिणत है, ऐसे आचार्य आदि सत्पुरुषों की विशुद्ध-कुशल चित्त तथा शुद्ध आशयपूर्वक विधिवत् सेवा का भी योगबीजों में समावेश है ।
[ २७ ] भवोद्व गश्च सहजो द्रव्याभिग्रहपालनम् । तथा सिद्धान्तमाश्रित्य विधिना लेखनादि च ॥
१ जीव द्वारा ग्रहण-त्याग किये जाते लोक-व्याप्त समस्त पुद्गलों का एक बार
संस्पर्श एक पुद्गलावर्त कहा जाता है। इस क्रम का अन्तिम आवर्त, जिसे भोग चुकने पर जीव को पुनः इस चक्र में नहीं आना पड़ता, चरम-पुद्गलपरावर्त कहा जाता है। इसी ग्रन्थ के अन्तर्गत 'योगशतक' की हवीं गाथा के सन्दर्भ
में इसका विस्तृत विवेचन किया गया है । २ संज्ञाएँ-१. आहार-संज्ञा, २. भय-संज्ञा, ३. मैथुन-संज्ञा, ४. परिग्रह-संज्ञा,
५. क्रोध-संज्ञा, ६. मान-संज्ञा, ७. माया-संज्ञा, ८. लोभ-संज्ञा, ६. ओघ (सामान्य लोक-प्रवाह-गतानुगतिकता के अनुरूप जीवनक्रम) संज्ञा तथा १०. लोकसंज्ञा ।
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