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१० | योगदृष्टि समुच्चय
[ ३१ ] चरमे पुद्गलावर्ते क्षयश्चास्योपपद्यते । जीवानां लक्षणं तत्र यत एतदुदाहृतम् ॥
अन्तिम पुद्गलावर्त में भाव-मल का क्षय होता है। उस स्थिति में वर्तमान जीवों का लक्षण इस प्रकार (अग्रिम श्लोक में कथ्यमान) है।
[ ३२ ] दुःखितेषु दयात्यन्तमद्वषो गुणवत्सु च ।
औचित्यात्सेवनं चैव सर्वत्रैवाविशेषतः ॥ दुःखी प्राणियों के प्रति अत्यन्त दया-भाव, गुणीजनों के प्रति अद्वेष-अमत्सर-भाव तथा सर्वत्र जहाँ जैसा उचित हो, बिना किसी भेद-भाव के व्यवहार करना, सेवा करना-यह उन जीवों की पहचान हैं जिनका भावमल क्षीण हो जाता है।
[ ३३ ] एवंविधस्य जीवस्य भद्रमूर्तेर्महात्मनः ।
शुभो निमित्त-संयोगो जायतेऽवंचकोदयात् ।।
ऐसे भद्रमूर्ति - सौम्य स्वरूप, महात्मा-उत्तम पुरुष को अवञ्चकोदय के कारण शुभ निमित्त का संयोग प्राप्त होता है ।
[ ३४ ] योगक्रियाफलाख्यं यत् श्रूयतेऽवंचकत्रयम् ।
साधूनाश्रित्य परममिषुलक्ष्यक्रियोपमम् ॥ ।
साधकों में तीन अवञ्चक-योगावञ्चक, क्रियावञ्चक तथा फलावञ्चक प्राप्त होते हैं, यों सुना जाता है।
__ जो वञ्चना-प्रवञ्चना न करे, कभी न चूके, उलटा न जाय, बाण की तरह सीधा अपने लक्ष्य पर पहुँचे, उसे अवञ्चक कहा गया है। सद्गुरु का सुयोग प्राप्त होना योगावञ्चक है। उनका वन्दन, नमन, सेवा, सत्कार आदि शुभ क्रियाएं क्रियावञ्चक है। ऐसे उत्तम कार्य का फल, जो अमोघ होता है, फलावंचक है।
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