SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पञ्चम प्रकाश से एकादश प्रकाश तक के वर्णन में मिलता है। उभय ग्रन्थों में वर्णित विषय ही नहीं, बल्कि शब्दों में भी बहुत कुछ समानता है । प्राणायाम आदि से प्राप्त होने वाली लब्धियों एवं परकायप्रवेश आदि के फल का निरूपण करने के बाद दोनों आचार्यों ने प्राणायाम को साध्य सिद्धि के लिए अनावश्यक, निरुपयोगी, अहितकारक एवं अनर्थकारी बताया है । ज्ञानार्णव में २१ से २७ सर्गों में यह बताया है कि आत्मा स्वयं ज्ञान-स्वरूप है । कषाय आदि दोषों ने आत्म-शक्तियों को आवृत कर रखा है। अतः राग-द्वष एवं कषाय आदि दोषों का क्षय करना""मोक्ष है । इसलिए इसमें यह बताया है कि कषाय पर विजय प्राप्त करने का साधन इन्द्रिय-जय है, इन्द्रियों को जीतने का उपाय-मन की शुद्धि है, मन-शुद्धि का साधन है-राग-द्वेष को दूर करना और उसे दूर करने का साधन है-समत्व-भाव की साधना । समत्वभाव की साधना ही ध्यान या योग-साधना की मुख्य विशेषता है। यह वर्णन योगशास्त्र में भी शब्दशः एवं अर्थशः एक-सा है । यह सत्य है कि अनित्य आदि बारह भावनाओं और पांच महाव्रतों का वर्णन उभय ग्रन्थों में एक-से शब्दों में नहीं है, फिर भी वर्णन की शैली में समानता है। उभय ग्रन्थों में यदि कुछ अन्तर है तो वह यह है कि ज्ञानार्णव के तीसरे सर्ग में ध्यान-साधना करने वाले साधक के लिए गृहस्थाश्रम के त्याग का स्पष्ट विधान किया गया है, जब कि आचार्य हेमचन्द्र ने गृहस्थाश्रम की भूमिका पर ही योग-शास्त्र की रचना की है। आचार्य शुभचन्द्र कहते हैं- "बुद्धिशाली एवं त्यागनिष्ठ होने पर भी साधक महादुःखों से भरे हुए तथा अत्यधिक निन्दित गृहस्थाश्रम में रहकर प्रमाद पर विजय नहीं पा सकता और चंचल मन को वश में नहीं कर सकता । अतः चित्त की शान्ति के लिए महापुरुष गृहस्थाश्रम का त्याग ही करते हैं।" "अरे ! किसी देश और किसी काल-विशेष में आकाश-पुष्प और गधे के सिर पर शृंग का अस्तित्व मिल भी सकता है, परन्तु किसी भी काल और किसी भी देश में गृहस्थाश्रम में रहकर ध्यानसिद्धि को प्राप्त करना सम्भव ही नहीं है।" - परन्तु आचार्य हेमचन्द्र ने गृहस्थ-अवस्था में ध्यान-सिद्धि का निषेध नहीं किया है। आगमों में भी गृहस्थ-जीवन में धर्म-ध्यान की साधना को स्वीकार किया गया है। उत्तराध्ययन सूत्र में तो यहाँ तक कहा गया है कि किसी साधु की साधना की अपेक्षा गृहस्थ भी साधना में उत्कृष्ट हो सकता है । २ अन्य श्वेताम्बर आचार्यों ने भी पञ्चम गुणस्थान में धर्म-ध्यान को माना है । आचार्य हेमचन्द्र ने तो योग-शास्त्र का निर्माण राजा कुमारपाल के लिए ही किया था। उपाध्याय यशोविजयजी इसके पश्चात् उपाध्याय यशोविजयजी के योग विषयक ग्रन्थों पर दृष्टि जाती १ ज्ञानार्णव सर्ग ३.६, १०, १७. २ संति एगेहि भिक्खुहिं, गारत्था संजमुत्तरा। -उत्तराध्ययन, ५, २०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy