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________________ ( ७४ ) है । उपाध्यायजी का आगमज्ञान, चिन्तन-मनन, तर्क कौशल और योगानुभव विस्तृत एवं गंभीर था । ज्ञान की विशालता के साथ उनकी दृष्टि भी विशाल एवं व्यापक थी। उनका हृदय सांप्रदायिक संकीर्णताओं से रहित था । वस्तुतः उपाध्यायजी केवल परम्पराओं के पुजारी नहीं, बल्कि सत्योपासक थे । उपाध्याय यशोविजयजी ने योग पर अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद् और सटीक बत्तीस बत्तीसियाँ लिखीं, जिनमें जैन मान्यताओं का स्पष्ट एवं रोचक वर्णन करने के अतिरिक्त अन्य दर्शनों के साथ जैन दर्शन के साम्य का भी उल्लेख किया है । इसके अतिरिक्त गुजराती भाषी विचारकों के लिए आपने गुजराती भाषा में भी योगदृष्टि सज्झाय की रचना की । अध्यात्मसार ग्रन्थ में उपाध्यायजी ने योगाधिकार और ध्यानाधिकार प्रकरण . में मुख्य रूप से गीता एवं पातञ्जल योग सूत्र का उपयोग करके जैन परम्परा में प्रसिद्ध ध्यान के अनेक भेदों का उभय ग्रन्थों के साथ समन्वय किया है । उपाध्यायजी का यह समन्वयात्मक वर्णन दृष्टि तथा विचार - समन्वय के लिए बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवं उपयोगी है ।. अध्यात्मोपनिषद् ग्रन्थ में आपने शास्त्र-योग, ज्ञानयोग, क्रिया-योग और साम्ययोग के सम्बन्ध में योगवासिष्ठ और तैत्तिरीय उपनिषद् के वाक्यों से उद्धरण देकर . जैन-दर्शन के साथ तात्त्विक ऐक्य या समानता दिखाई है । योगावतार बत्तीसी में आपने मुख्यतया पातञ्जल योग सूत्र में वर्णित योगसाधना का जैन प्रक्रिया के अनुसार विवेचन किया है । इसके अतिरिक्त उपाध्यायजी ने आचार्य हरिभद्र की योग-विंशिका एवं षोडशक पर टीकाएँ लिखकर उनमें अन्तनिहित गूढ़ तत्त्वों का उद्घाटन किया है । वे इतना लिखकर ही सन्तुष्ट नहीं हुए, उन्होंने पातञ्जल योग सूत्र पर भी जैन सिद्धान्त के अनुसार एक छोटी-सी वृत्ति लिखी है । उसमें उन्होंने अनेक स्थानों पर सांख्य विचारधारा का जैन विचार-धारा के साथ मिलान भी किया और कई स्थलों पर युक्ति एवं तर्क के साथ प्रतिवाद भी किया । 'उपाध्याय यशोविजय जी के ग्रन्थों का अध्ययन करने पर यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उपाध्यायजी ने अपने वर्णन में मध्यस्थ भावना, गुणग्राहकता, सूक्ष्म समन्वय शक्ति एवं स्पष्टवादिता दिखाई है । अतः हम निस्संकोच भाव से यह कह सकते हैं कि उपाध्यायजी ने आचार्य हरिभद्र की समन्वयात्मक दृष्टि को पल्लवितपुष्पित किया है, उसे आगे बढ़ाया है । योगसार ग्रन्थ--- Jain Education International इसके अतिरिक्त श्वेताम्बर साहित्य में एक योगसार ग्रन्थ भी है । उसमें लेखक के नाम का उल्लेख नहीं है और यह भी उल्लेख नहीं मिलता है कि वह कब और कहाँ लिखा गया है । परन्तु उसके वर्णन, शैली एवं दृष्टान्तों का अवलोकन करने से ऐसा लगता है कि आचार्य हेमचन्द्र के योग- शास्त्र के आधार पर किसी श्वेताम्बर आचार्य ने उसे लिखा हो ।................... " इत्यादि । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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