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________________ इसके लिए हठयोग की साधना को बिलकुल महत्त्व नहीं दिया है । यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि वैदिक परम्परा के योगविषयक ग्रन्थों में भी हठयोग को अग्राह्य कहा है, फिर भी वैदिक परम्परा में हठयोग की प्रधानता वाले अनेक ग्रन्थों एवं मार्गों का निर्माण हुआ है । परन्तु, जैन साहित्य में हठयोग को कोई स्थान नहीं दिया है। क्योंकि, हठयोग से हठपूर्वक, बलपूर्वक रोका गया मन थोड़ी देर बाद जब छूटता है, तो सहसा टूटे हुए बाँध की तरह तीव्र वेग से प्रवाहित होता है और सारी साधना को नष्टभ्रष्ट कर देता है इसलिए जैन परम्परा में योगों का निरोध करने के लिए हठयोग के स्थान में समिति-गुप्ति का विधान किया गया है, जिसे सहजयोग भी कहते हैं । इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि जब भी साधक आने-जाने, उठने-बैठने, खाने-पीने, पढ़ने-पढ़ाने आदि की जो भी क्रिया करे, उस समय वह अपने योगों को अन्यत्र से हटाकर उस क्रिया में केन्द्रित कर ले । वह उस समय तद्रप बन जाय । इससे मन . इतस्ततः न भटककर एक जगह केन्द्रित हो जाएगा और उसकी साधना निर्बाध गति से प्रगतिशील बनी रहेगी। जैनागमों में योग-साधना के अर्थ में 'ध्यान' शब्द का प्रयोग हुआ है । ध्यान का अर्थ है-अपने योगों को आत्म-चिन्तन में केन्द्रित करना । ध्यान में काय-योग की प्रवृति को भी इतना रोक लिया जाता है कि चिन्तन के लिए ओष्ठ एवं जिह्वा को हिलाने की भी अनुमति नहीं है । उसमें केवल साँस के आवागमन के अतिरिक्त कोई हरकत नहीं की जाती। इस तरह काय-स्थिरता के साथ मन और वचन को भी स्थिर किया जाता है। जब मन चिन्तन में संलग्न हो जाता है, तब उसे यथार्थ में ध्यान एवं साधना कहते हैं । एकाग्रता के अभाव में वह साधना भाव-यथार्थ साधना नहीं, बल्कि द्रव्य-साधना कहलाती है। भाव-आवश्यक की व्याख्या करते हुए कहा है-प्रत्येक साधक-भले ही वह साधु हो या साध्वी, श्रावक हो या श्राविका, जब अपना मन, चित्त, लेश्या, अध्यवसाय, उपयोग उसमें लगा देता है, उसमें प्रीति रखता है, उसकी भावना करता है और अपने मन को अन्यत्र नहीं जाने देता है, इस तरह जो साधक उभय काल आवश्यक-प्रतिक्रमण करता है, उसे 'भावआवश्यक' कहते हैं। इसके अभाव में किया जाने वाला आवश्यक 'द्रव्य-आवश्यक' कहलाता है । यही बात अन्य धर्म-साधना एवं ध्यान के लिए समझनी चाहिए । जैनागमों में योग-साधना के लिए प्राणायाम आदि को अनावश्यक माना है। क्योंकि, इस प्रक्रिया से शरीर को कुछ देर के लिए साधा जा सकता है, रोग आदि का निवारण किया जा सकता है और काल-मृत्यु के समय का परिज्ञान किया जा १ योगवासिष्ठ, ६२, ३७-३६ । २ अनुयोगद्वार सूत्र, श्रु ताधिकार, २७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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