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________________ ( ६५ ) जैन परम्परा के मूल ग्रन्थ आगम हैं। उनमें वणित साध्वाचार का अध्ययन करने से यह स्पष्ट परिज्ञात होता है कि पाँच महाव्रत, समिति, गुप्ति, तप, ध्यान, स्वाध्याय आदि-जो योग के मुख्य अंग हैं, उनको साधु-जीवन का, श्रमण-साधना का प्राण माना है।' वस्तुतः आचार-साधना श्रमण-साधना का मूल है, प्राण है, जीवन है । आचार के अभाव में श्रमणत्व की साधना केवल निष्प्राण कंकाल एवं शव रह जाएगी। जैनागमों में योग' शब्द समाधि या साधना के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ है । वहाँ योग का अर्थ है- मन, वचन और काय--शरीर की प्रवृत्ति । योग शुभ और अशुभ!-दो तरह का होता है । इसका निरोध करना ही श्रमण-साधना का मूल उद्देश्य है, मुख्य ध्येय है । अतः जैनागमों ने साधु को आत्म-चिन्तन के अतिरिक्त अन्य कार्य में प्रवृत्ति करने की ध्र व आज्ञा नहीं दी है । यदि साधु के लिए अनिवार्य रूप से प्रवृत्ति करना आवश्यक है, तो आगम निवृत्तिपरक प्रवृत्ति करने की अनुमति देता है । इस प्रवृत्ति को आगमिक भाषा में 'समिति-गुप्ति' कहा है, इसे अष्ट प्रवचन माता भी कहते हैं ।२ पाँच समिति-१. ईर्या समिति २. भाषा समिति, ३. एषणा समिति, ४. आयाण-भंड-निक्षेपणा समिति और ५. उच्चार-पासवण-खेल-जल-मैल-परिठावणियासमिति प्रवृति की प्रतीक हैं और त्रिगुप्ति-मन-गुप्ति, वचन-गुप्ति और काय-गुप्ति निवृत्तिपरक हैं। समिति अपवाद मार्ग है और गुप्ति उत्सर्ग मार्ग हैं । साधु को जब भी किसी कार्य में प्रवृत्ति करना अनिवार्य हो, तब वह मन, वचन और काय योग को अशुभ से हटाकर, विवेक एवं सावधानी-पूर्वक प्रवृत्ति करे। इस निवृत्ति-प्रधान एवं त्याग-निष्ठ जीवन को ध्यान में रखकर ही साधु की दैनिक चर्या का विभाग किया गया है। इसमें रात और दिन को चार-चार भागों में विभक्त करके बताया गया है कि साधु दिन और रात के प्रथम एवं अंतिम प्रहर में स्वाध्याय करे और द्वितीय प्रहर में ध्यान एवं आत्म-चिन्तन में संलग्न रहे । दिन के तृतीय प्रहर में वह आहार लेने को जाय और उस लाए हुए निर्दोष आहार को समभावपूर्वक अनासक्त भाव से खाए और रात्रि के तृतीय प्रहर में निद्रा से निवृत्त होकर, चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्याय में संलग्न हो जाय । इस प्रकार रात-दिन के आठ प्रहरों में छह प्रहर केवल स्वाध्याय, ध्यान, आत्म-चिन्तन-मनन में लगाने का आदेश है । सिर्फ दो प्रहर प्रवृत्ति के लिए हैं, वह भी संयमपूर्वक प्रवृत्ति के लिए, न कि अपनी इच्छानुसार। श्रमण-साधना का मूल ध्येय-योगों का पूर्णतः निरोध करना है। परन्तु, १ आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि । २ अट्ठ पवयणमायाओ, समिए गुत्ती तहेव य । पंचेव य समिईओ, तओ गुत्ती उ आहिया ।। --उत्तराध्ययन सूत्र २४, १. ३ उत्तराध्ययन सूत्र, २६, ११-१२; १७-१८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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