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योग के अन्य अंग
बौद्ध-साहित्य में आर्य अष्टांग का वर्णन किया गया है। उसमें शील, समाधि और प्रज्ञा का उल्लेख मिलता है। शील का अर्थ है-कुशल धर्म को धारण करना, कर्तव्य में प्रवृत्त होना और अकर्तव्य से निवृत्त होना ।' कुशल चित्त की एकाग्रता या चित्त और चैतसिक धर्म का एक ही आलम्बन में सम्यक्तया स्थापन करने की प्रक्रिया का नाम 'समाधि' है ।२ कुशल चित्त युक्त विपश्य--विवेक ज्ञान को 'प्रज्ञा' कहा है ।३
बौद्धों द्वारा स्वीकृत शील में पतंजलिसम्मत यम-नियम का समावेश हो जाता है । बौद्ध साहित्य में पंचशील, वैदिक परम्परा में पाँच यम और जैन परम्परा में पांच महाव्रतों का उल्लेख मिलता है । यम और महाव्रतों के नाम एक से हैं-- १. अहिंसा २. सत्य, ३. अस्तेय, ४. ब्रह्मचर्य, और ५. अपरिग्रह । पंचशील में प्रथम चार के नाम यही हैं, परन्तु अपरिग्रह के स्थान में मद्य से निवृत्त होने का उल्लेख मिलता है।
समाधि में योग-सूत्र द्वारा मान्य प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि का समावेश हो जाता है और जैन परम्परा में वर्णित ध्यान आदि आभ्यन्तर तप में प्रत्याहार आदि चार अंगों का तथा बौद्ध दर्शन द्वारा मान्य समाधि का समावेश हो जाता है। योग-सूत्रसम्मत तप का तीसरा नियम अनशनादि बाह्य तप में आ जाता है । स्वाध्याय रूप आभ्यन्तर तप और योग-सूत्र द्वारा वर्णित स्वाध्याय का अर्थ एक-सा है।
बौद्ध परम्परा द्वारा मान्य प्रज्ञा और योग-सूत्र द्वारा वणित विवेक-ख्याति में पर्याप्त अर्थ-साम्य है। इस तरह बौद्ध साहित्य में वर्णित योग अन्य परम्पराओं से कहीं शब्द से मेल खाता है, तो कहीं अर्थ से और कहीं प्रक्रिया से मिलता है। जैनागमों में योग
जैन धर्म निवृत्ति-प्रधान है। इसके चौबीसवें तीर्थकर भगवान महावीर ने साढ़े बारह वर्ष तक मौन रहकर घोर तप, ध्यान एवं आत्म-चिन्तन के द्वारा योगेसाधना का ही जीवन बिताया था। उनके शिष्य-शिष्या-परिवार में पचास हजार व्यक्ति-चवदह हजार साधु और छत्तीस हजार साध्वियाँ-ऐसे थे, जिन्होंने योगसाधना में प्रवृत्त होकर साधुत्व को स्वीकार किया था ।
१. विसुद्धिमग्ग, १,१९-२५ । २ वही, ३,२-३ । ३ वही, १४,२-३ । ४ चउद्दसहिं समणसाहस्सीहिं छत्तीसहिं अज्जिआसाहस्सीहिं ।
-उववाई सूत्र १०.
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