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________________ ( ६७ ) सकता है, परन्तु साध्य को सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस प्रक्रिया से मुक्ति-लाभ नहीं हो सकता । उसके लिए योगों को सहज भाव से केन्द्रित करना आवश्यक है । इसके लिए ध्यान-साधना उपयुक्त मानी गई है । इससे योगों में एकाग्रता आती है, जिससे आस्रव का निरोध होता है, नए कर्मों का आगमन रुकता है और पुरातन कर्म क्षीण होते हैं । तब एक समय ऐसा आता है कि साधक समस्त कर्मों का क्षय करके, योगों का निरोध करके अपने साध्य को सिद्ध कर लेता है, निर्वाण-पद को पा लेता है । जैन योग-ग्र -ग्रन्थ यह हम बता आए हैं कि जैनागमों में योग के स्थान में 'ध्यान' शब्द प्रयुक्त हुआ है । कुछ आगम-ग्रन्थों में ध्यान के लक्षण, भेद, प्रभेद, आलम्बन आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है ।' आगम के बाद नियुक्ति का नम्बर आता है । उसमें भी आगम में वर्णित ध्यान का ही स्पष्टीकरण किया है ।" आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थ सूत्र में ध्यान का वर्णन किया है, परन्तु उनका वर्णन आगम से भिन्न नहीं है । ३ उन्होंने आगम एवं नियुक्ति में वर्णित विषय से अधिक कुछ नहीं कहा है । जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण का ध्यान - शतक भी आगम की शैली में लिखा गया है ।" आगम युग से लेकर यहाँ तक योग-विषयक वर्णन में आगम-शैली की ही प्रमुखता रही है । परन्तु, आचार्य हरिभद्र ने परम्परा से चली आ रही वर्णन शैली को परिस्थिति एवं लोक - रुचि के अनुरूप नया मोड़ देकर अभिनव परिभाषा करके जैन योगसाहित्य में अभिनव युग को जन्म दिया । उनके बनाए हुए योग विषयक ग्रन्थ - योगबिन्दु, योगदृष्टि समुच्चय, योगविंशिका, योगशतक और षोडशक, इसके ज्वलन्त प्रमाण हैं । उक्त ग्रन्थों में आप केवल जैन परम्परा के अनुसार योग-साधना का वर्णन करके ही सन्तुष्ट नहीं हुए, बल्कि पातञ्जल योग सूत्र में वर्णित योग-साधना एवं उसकी विशेष परिभाषाओं के साथ जैन साधना एवं परिभाषाओं की तुलना करने एवं उसमें रहे हुए साम्य को बताने का प्रयत्न भी किया । आचार्य हरिभद्र के योग विषयक मुख्य चार ग्रन्थ हैं - १ योगबिन्दु, २ योगदृष्टि- समुच्चय, ३ योग- शतक, और ४ योगविंशिका । षोडशक में कुछ प्रकरण योग १ स्थानांग सूत्र, ४, १; समवायांग सूत्र ४; भगवती सूत्र, २५, ७; उत्तराध्ययन सूत्र, ३०, ३५ । २ आवश्यक नियुक्ति, कायोत्सर्ग अध्ययन, १४६२-८६ । ३ तत्त्वार्थ सूत्र ६, २७ । ४ हरिभद्रीय आवश्यकवृत्ति, पृष्ठ ५८१ । ५ समाधिरेष एवान्यै. संप्रज्ञातोऽभिधीयते । सम्यक्प्रकर्षरूपेण वृत्त्यर्थ - ज्ञानतस्तथा ॥ असंप्रज्ञात एषोऽपि समाधिर्गीयते परैः । निरुद्धाशेषवृत्त्यादि तत्स्वरूपानुवेधतः ॥ Main Education International For Private & Personal Use Only - योगबिन्दु, ४१८, ४२० www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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