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________________ ( ६० ) अर्थ है - ऊह । अर्थात् सर्वप्रथम किसी आलम्बन को ग्रहण करके समाधि के विषय में चित्त के प्रवेश को 'वितर्क' कहते हैं, उस विषय में गहरे उतरने को 'विचार' कहते हैं, उससे जो आनन्द उपलब्ध होता है, उसे 'प्रीति' कहते हैं । उस आनन्द से शरीर को जो समाधान मिलता है, वह 'सुख' है, और उस विषय में चित्त की जो एकाग्रता होती है, उसे 'एकाग्रता' कहते हैं और उस विषय से अत्यधिक परिचय होने पर उससे उत्पन्न होने वाली निर्भयता या निष्कंपता को 'उपेक्षा' कहते हैं । ज्यों-ज्यों साधक का अभ्यास बढ़ता है, त्यों-त्यों उसका विकास भी बढ़ता रहता है । समाधिमार्ग में गहरा उतर जाने के बाद साधक को वितर्क और विचार की आवश्यकता नहीं रहती । इसके बिना भी वह आनन्द को प्राप्त कर लेता है । इसके आगे आनन्द के बिना भी उसे सुख की अनुभूति होने लगती है । और अन्त में जब उसमें उपेक्षा या एकाग्रता आ जाती है, तब वह पूर्णतः निर्भय एवं निष्कंप हो जाता है । इस अवस्था में वितर्क, विचार, प्रीति और सुख - किसी के चिन्तन की आवश्यकता नहीं रहती है । यह ध्यान की चरम पराकाष्ठा है । सुत्तपिटक में आन पान स्मृति का वर्णन मिलता है । चित्त वृत्ति को एकाग्र करने के लिए इसका उपदेश दिया गया है । इसमें बताया है कि साधक साँस ग्रहण करते एवं छोड़ते समय पूरी सावधानी रखे, अपने चित्त को साँस लेने एवं छोड़ने की क्रिया के साथ संलग्न करे । चित्त को स्थिर करने के लिए साधक 'अरहं' शब्द पर अपने चित्त को स्थित करके श्वासोच्छ्वास ले । यदि 'अरह' शब्द पर चित्त स्थिर नहीं रह पाता है तो उसे गणना, अनुबन्धना, स्पर्श और स्थापना का प्रयोग करना चाहिए । गणना का अर्थ है, साँस लेते और छोड़ते समय साँस की गणना की जाए । यह गणना न तो दस से अधिक होनी चाहिए और न पाँच से कम । यदि दस से अधिक करते रहे तो चित्त अरहं के चिन्तन में न लगकर केवल गणना में ही लगा रहेगा और पाँच से कम करते हैं तो मन डगमगा जाएगा। अतः गणना के लिए पाँच और दस के बीच की संख्या लेनी चाहिए । जब मन गणना करने में संलग्न हो जाए, तब साथ चित्त साथ जोड़ दे गणना के कार्य को छोड़कर भी अन्दर-बाहर आता जाता इस प्रक्रिया को 'अनुबन्धना' । साँस के अन्दर जाने एवं बाहर आने के रहे अर्थात् चित्त को श्वासोच्छ्वास के कहते हैं । श्वास और प्रश्वास आते-जाते समय नासिका के अग्र भाग को स्पर्श करते हैं । अतः उस स्थान पर चित्त को लगाना स्पर्श कहलाता है । और श्वास एवं प्रश्वास पर चित्त को एकाग्र करने की प्रक्रिया को स्थापना कहते हैं । १ विसुद्धिम | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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