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इस तरह पातञ्जल योग-सूत्र का गहन अध्ययन करने एवं उस पर अनुचिन्तन करने से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि उसके वर्णन में जैन दर्शन के साथ बहुत कुछ समानता है और इस विचार-समानता के कारण आचार्य हरिभद्र जैसे उदार एवं विराटहृदय जैनाचार्यों ने अपने योग-विषयक ग्रन्थों में महर्षि पतञ्जलि की विशाल दृष्टि के लिए आदर प्रकट करके गुण-ग्राहकता का परिचय दिया है। यह नितान्त सत्य है कि जब मनुष्य शाब्दिक ज्ञान की प्राथमिक भूमिका से आगे बढ़ जाता है, तब वह शब्दों की पूंछ न खींचकर चिन्ता-ज्ञान तथा भाव-ज्ञान से उत्तरोत्तर अधिकाधिक एकता वाले प्रदेश में स्थित होकर अभेद एवं निष्पक्ष-~-पक्षपात रहित आनन्द का अनुभव करता है। बौद्ध योग परम्परा
बौद्ध साहित्य में योग के स्थान में 'ध्यान' और 'समाधि' शब्द का प्रयोग मिलता है । बोधित्व प्राप्त होने के पूर्व तथागत बुद्ध ने श्वासोच्छ्वास का निरोध करने का प्रयत्न किया । वे अपने शिष्य अग्गिवेस्सन को कहते हैं कि मैं श्वासोच्छ्वास का निरोध करना चाहता था, इसलिए मैं मुख, नाक, एवं कर्ण-कान में से निकलते हुए साँस को रोकने का, उसे निरोध करने का प्रयत्न करता रहा । ३ परन्तु इससे उन्हें समाधि प्राप्त नहीं हई । इसलिए बोधित्व प्राप्त होने के बाद तथागत बुद्ध ने हठयोग की साधना का निषेध किया और आर्य अष्टांगिक मार्ग का उपदेश दिया है।
इस अष्टांगिक मार्ग में समाधि को विशेष महत्त्व दिया गया है । वस्तुतः समाधि के रक्षण के लिए ही आर्य अष्टांग में सात अंगों का वर्णन किया है और उन सात अंगों में एकता बनाए रखने के लिए 'समाधि' आवश्यक है।
इस सम्यक्समाधि को प्राप्त करने के लिए चार प्रकार के ध्यान का वर्णन किया गया है--१. वितर्क-विचार-प्रीति-सुख-एकाग्रता-सहित, २. प्रीति-सुख-एकाग्रतासहित, ३. सुख-एकाग्रता-सहित, और ४. एकाग्रता-सहित ।५ प्रस्तुत में वितर्क का
१ योग-बिन्दु, ६६; योगदृष्टि समुच्चय, १००. २ शब्द, चिन्ता तथा भावना ज्ञान के स्वरूप को विस्तार से समझने की जिज्ञासा रखने
वाले पाठक उपाध्याय यशोविजय जी कृत अध्यात्मोपनिषद्, श्लोक ६५-७४ देखें। ३ अंगुत्तरनिकाय, ६३ ।
१. सम्यग्दृष्टि, २. सम्यक्संकल्प, ३. सम्यग्वाणी, ४. सम्यक्कर्म, ५. सम्यक्आजीविका, ६. सम्यग्व्यायाम, ७. सम्यक्स्मृति और ८. सम्यक्समाधि ।
--संयुत्तनिकाय ५, १०, विभंग ३१७-२८. ५ मज्झिमनिकाय, दीघनिकाय, सामञकफलसुत्त; बुद्धलीलासार संग्रह, पृष्ठ १२८;
समाधि मार्ग (धर्मानन्द कौसाम्बी), पृष्ठ १५ ।
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