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________________ जब साधक चित्त को एकाग्र कर लेता है, तो समझना चाहिए, उसने समाधिमार्ग में प्रवेश कर लिया है। अब उसे चाहिए कि वह चित्त की एकाग्रता के अभ्यास को इतना दृढ़ कर ले कि भय, शोक एवं हर्ष आदि के समय भी चित्त विभ्रान्त न हो सके। प्रथम चौकड़ी में मन को एकाग्र करने के लिए उसे गणना आदि के साथ जोड़ने का उपदेश दिया गया है। द्वितीय चौकड़ी में चित्त को, मन को एकाग्र करने के लिए प्रीति-प्रेम को मुख्य स्थान दिया गया है । प्रस्तुत में प्रीति का अर्थ है--निष्काम प्रेम, विश्व-बन्धुत्व की भावना। इस साधना से योगी का मन प्रीति के साथ एकाग्र हो जाता है, निष्कंप बन जाता है और योगी अपनी वेदना, रोग एवं दु:ख-दर्द आदि को भूल जाता है । तब उसे अनुपम सुख एवं आनन्द की अनुभूति होती है। इस प्रयत्न से योगी के चित्त की गति मन्द हो जाती है, उसमें स्थिरता आ जाती है । तब वह चित्त को विमुक्त करके श्वासोच्छ्वास की क्रिया करता है । अर्थात् वह श्वासोच्छ्वास में आसक्त नहीं होता है। इस प्रक्रिया से उसे अनन्त सुख मिलता है, फिर भी उसमें आबद्ध नहीं होता है । इस अभ्यास के पश्चात् योगी निर्वाण मार्ग में प्रविष्ट होता है। इसके अभ्यास के लिए वह अनित्यता का चिन्तन करता है। अनित्यता से वैराग्य का अनभव होता है और इससे समस्त वृत्तियाँ एवं मनोभावनाएँ विलीन हो जाती हैं और योगी निर्वाण-पद को प्राप्त कर लेता है । बौद्ध साहित्य में समाधि एवं निर्वाण प्राप्त करने के लिए ध्यान के साथ अनित्य भावना को भी महत्त्व दिया गया है। तथागत बुद्ध अपने शिष्यों से कहते हैं-हे भिक्षुओ ! रूप अनित्य है, वेदना अनित्य है, संज्ञा अनित्य है, संस्कार अनित्य है, विज्ञान अनित्य है । जो अनित्य है, वह दुःखप्रद है। जो दुःखप्रद है, वह अनात्मक है। जो अनात्मक है, वह मेरा नहीं है. वह मैं नहीं हूँ। इस तरह संसार के अनित्य स्वरूप को देखना चाहिए। क्योंकि 'यदनिच्चं तं दुक्खं' जो अनित्य है, वह दुःख रूप है। जैन विचारकों ने भी अनित्य भावना के चिन्तन को महत्त्व दिया है । भरत चक्रवर्ती ने इस अनित्य भावना के द्वारा ही चक्रवर्ती-वैभव भोगते हुए केवलज्ञान को प्राप्त किया था । आचार्य हेमचन्द्र ने भी अनित्य भावना का यही स्वरूप बताया है ___ "इस संसार के समस्त पदार्थ अनित्य हैं। प्रातःकाल जिसे देखते हैं, वह मध्याह्न में दिखाई नहीं देता और मध्याह्न में जो दृष्टिगोचर होता है, वह रानि में नजर नहीं आता ।" १ देखें-योग-शास्त्र (आचार्य हेमचन्द्र), प्रकाश ४, श्लोक ५७-६०,-३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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