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जिसमें योग या एकाग्रता का अभाव है, वह ज्ञानी नहीं, ज्ञान-बन्धु-ज्ञानी का भाई या सम्बन्धी है।'
जैन आगम में भी यह बताया है कि सम्यक साधना-चारित्र के द्वारा साधक घातिकर्म का क्षय करके पूर्ण ज्ञान--केवलज्ञान को प्राप्त करता है। बिना चारित्र के उसके ज्ञान में पूर्णता नहीं आ पाती । अतः साधना के लिए ज्ञान आवश्यक है और ज्ञान के विकास के लिए साधना । ज्ञान और योग या क्रिया की संयुक्त साधना से ही साध्य सिद्ध होता है, अन्यथा नहीं है। व्यावहारिक और पारमार्थिक योग
.. योग एक साधना है। उसके दो रूप हैं--१. बाह्य और २. आभ्यन्तर । एकाग्रता-यह उसका बाह्य रूप है और अहंभाव, ममत्व आदि मनोविकारों का न होना उसका आभ्यन्तर रूप है । एकाग्रता योग का शरीर है, तो अहंभाव एवं ममत्व का परित्याग उसकी आत्मा है । क्योंकि अहंभाव आदि मनोविकारों का परित्याग किए बिना मन, वचन एवं काय योग में स्थिरता आ नहीं सकती और मन, वचन तथा कर्म में एकरूपता एवं समता का विकास नहीं हो सकता। योगों की स्थिरता, एकरूपता हुए बिना तथा समभाव के आए बिना योग-साधना हो नहीं सकती । अतः योग-साधना के लिए मनोविकारों का परित्याग आवश्यक है।
जिस साधना में एकाग्रता तो है, परन्तु अहंत्व-ममत्व का त्याग नहीं है, वह केवल व्यावहारिक या द्रव्य-साधना है। पारमार्थिक या भावयोग-साधना वह है, जिसमें एकाग्रता और स्थिरता के साथ मनोविकारों का परित्याग कर दिया गया है । अहंत्व-ममत्व भाव का त्यागी आत्मा किसी भी प्रवृत्ति में प्रवृत्त हो-भले ही वह स्थूल दृष्टि वाले व्यक्तियों को बाह्य प्रवृत्ति परिलक्षित होती हो, वह पारमार्थिक योगी कहलाता है। इसके विपरीत स्थूल दृष्टि से देखने वाले व्यक्ति जिसे आध्यात्मिक साधना समझते हैं, उसमें प्रवृत्त व्यक्ति अहंत्व-ममत्व में रमण करता है, तो उसकी वह योग-साधना केवल द्रव्य-साधना है, बाह्य योग है । उससे उसका साध्य सिद्ध नहीं हो सकता । अतः विचारकों ने अहंत्व-ममत्व भाव से रहित समत्वभाव की साधना को ही सच्चा योग कहा है।
योगवासिष्ठ, सर्ग २१.
१ व्याचष्टे यः पठति च शास्त्र भोगाय शिल्पिवत् ।
यतते न त्वनुष्ठाने ज्ञानबन्धुः स उच्यते ॥ २ (क) ज्ञानक्रियाभ्यां मोक्षः ।
(ख) सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्राणि मोक्षमार्गः । ३ योगस्थः कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनञ्जय !
सिड्यसियोः समोभूत्वा समत्वं योग उच्यते ।।
--तत्त्वार्थ सूत्र, १, १.
-गीता, २, ४८
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