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________________ ( ४७ > अन्तिम ध्येय भी मोक्ष माना है । इस तरह समग्र भारतीय साहित्य का चरम आदर्श मोक्ष रहा है और उसकी गति चतुर्थ पुरुषार्थ की ओर ही रही है । इस तरह सम्पूर्ण वाङ्मय का एक ही आदर्श रहा है । और भारतीय जनता की अभिरुचि भी मोक्ष या ब्रह्म प्राप्ति की ओर रही है । इससे यह स्पष्ट होता है कि योग एवं अध्यात्म-साधना की परम्परा भारत में युग-युगान्तर से अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है । यही कारण है कि विश्व कवि रवीन्द्रनाथ टैगोर ने यह लिखा है कि भारतीय सभ्यता अरण्य - जंगल में अवतरित हुई है । और यह है भी सत्य । क्योंकि भारत का कोई भी पहाड़, वन एवं गुफा योग एवं आध्यात्मिक साधना से शून्य नहीं मिलेगी । इससे यह कहना उपयुक्त ही है कि योग को आविष्कृत एवं विकसित करने का श्रेय भारत को ही है । पाश्चात्य विद्वान भी इस बात को स्वीकार करते हैं । ३ ज्ञान और योग दुनियाँ की कोई भी क्रिया क्यों न हो, उसे करने के लिए सबसे पहले ज्ञान आवश्यक है। बिना ज्ञान के कोई भी क्रिया सफल नहीं हो सकती । आत्म-साधना के लिए भी क्रिया के पूर्व ज्ञान का होना आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य माना है । जैनागम में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि पहले ज्ञान फिर क्रिया । ज्ञानाभाव में कोई भी क्रिया, कोई भी साधना -- भले ही वह कितनी ही उत्कृष्ट, श्रेष्ठ एवं कठिन क्यों न हो, साध्य को सिद्ध करने में सहायक नहीं हो सकती । अतः साधना के लिए ज्ञान आवश्यक है | परन्तु ज्ञान का महत्त्व भी साधना एवं आचरण में है । ज्ञान का महत्त्व तभी समझा जाता है, जबकि उसके अनुरूप आचरण किया जाए। ज्ञान - पूर्वक किया गया आचरण ही योग है, साधना है । अतः ज्ञान योग-साधना का कारण है । परन्तु योगसाधना के पूर्व ज्ञान इतना स्पष्ट नहीं रहता, जितना साधना के बाद होता है । तदनुरूप क्रिया एवं साधना के होने से चिन्तन में विकास होता है, साधना के नए अनुभव होते हैं । इससे ज्ञान में निखार आता है । अतः योग-साधना के पश्चात् होने वाला अनुभवात्मक ज्ञान स्पष्ट एवं परिपक्व होता है कि उसमें धुंधलापन नहीं रहता या कम रहता है । अतः गीता की भाषा में सच्चा ज्ञानी वही है, जो योगी है । " १ २ ४ ५ स्थविरे धर्मं मोक्षं च । - काम-सूत्र (बम्बई संस्करण) अ० २, पृ० ११ Thus in India it was in the forests that our civilisation had its birth. --Sadhna, by Tagore, p. 4. This concentration of thought ( एकाग्रता ) or onepointedness, as the Hindus called it, is something to us almost unknown. ——Sacred Books of the East, by Max Muller, Vol. 1, p. 3. - दशवैकालिक ४, १० - गीता ५, ५ पढमं नाणं तओ दया । यत्सांख्यैः प्राप्यते स्थानं एकं सांख्यं च योगं च यः Jain Education International तद्योगैरपि गम्यते । पश्यति स पश्यति ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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