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________________ ( ४६ ) योग-परम्पराएँ विश्व की किसी भी वस्तु को पूर्ण बनाने के लिए दो बातों की आवश्यकता पड़ती है-एक पदार्थ-विषयक ज्ञान और दूसरी क्रिया । ज्ञान और क्रिया के सुमेल के बिना दुनियाँ का कोई भी कार्य पूरा नहीं किया जा सकता- भले ही वह लौकिक कार्य हो या पारलौकिक, सांसारिक हो या आध्यात्मिक । यदि किसी व्यक्ति को एक मकान बनाना है, तो मकान तैयार करने के पूर्व उसे उसके स्वरूप, उसमें लगने वाली सामग्री और उसमें काम आने वाली सामग्री और उसमें काम आने वाले साधनों एवं उस साधन-सामग्री के उपयोग करने के ढंग का ज्ञान करना आवश्यक है । तत्सम्बन्धी पूरी जानकारी करने के बाद उसके अनुरूप · क्रिया की जाती है, परिश्रम किया जाता है । ठीक इसी प्रकार आध्यात्मिक साधना के द्वारा आत्मा को कर्मबन्धन से पूर्णतया मुक्त करने के अभिलाषी साधक के लिए भी यह आवश्यक है कि वह सर्वप्रथम अत्मा के साथ कर्मों के बन्धन के कारण, बन्ध को रोकने तथा आबद्ध कर्मों को तोड़ने के साधनों का सम्यक् बोध प्राप्त करे । उसके पश्चात् वह तदनुसार क्रिया करे, उस ज्ञान को आचरण का रूप दे । इस तरह ज्ञान और क्रिया के सुमेल से साध्य की सिद्धि हो सकती है, अन्यथा नहीं। योग साधना भी एक क्रिया है। इस साधना में प्रवृत्त होने, संलग्न होने के पूर्व साधक आत्मा, योग, साधना आदि आध्यात्मिक एवं तात्त्विक विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है । वह योग के हर पहलू पर गहराई से सोचता-विचारता है। परन्तु चिन्तन का एक रूप न होने के कारण-योग एवं उसके फलस्वरूप प्राप्त होने वाले मोक्ष में एकरूपता होने पर भी, उनके द्वारा प्ररूपित योग एवं मुक्ति के स्वरूप में भिन्नता परिलक्षित होती है। क्योंकि, वस्तु अनेक पर्यायों से युक्त है और उसका चिन्तन करने वाले साधक उसके किसी पर्याय-विशेष को लेकर उस पर चिन्तन करते हैं, अतः उनके चिन्तन में अन्तर रहना स्वाभाविक है। इसी विचार-विभिन्नता के कारण योग-साधना भी विभिन्न धाराओं में प्रवहमान दिखाई देती है। साधना का मूल केन्द्र आत्मा है । अतः योग के चिन्तन का मुख्य विषय भी आत्मा है । और आत्म-स्वरूप के सम्बन्ध में भी सभी भारतीय विचारक एवं दार्शनिक एकमत नहीं हैं । आत्मा को जड़ से भिन्न एक स्वतन्त्र द्रव्य मानने वाले विचारक भी दो भागों में विभक्त हैं । कुछ विचारक एकात्मवादी हैं और कुछ अनेकात्मवादी हैं। इसके अतिरिक्त व्यापकत्व-अव्यापकत्व, परिणामित्व-अपरिणामित्व, क्षणिकत्वनित्यत्व आदि के अनेक विचार-भेद रहे हुए हैं । परन्तु, यदि इन अवान्तर भेदों को एक तरफ भी रख दें, तो मुख्य दो भेद रह जाते हैं-१. एकात्मवादी और २. अनेकात्मवादी । इस आधार पर योग-साधना भी दो परम्पराओं में विभक्त हो जाती है । कुछ उपनिषद्,' योगवासिष्ठ, हठयोग-प्रदीपिका आदि योग-विषयक ग्रन्थ १ ब्रह्मविद्या, क्षुरिका, चूलिका, नादबिन्दु, ब्रह्मबिन्दु, अमृतबिन्दु, ध्यानबिन्दु, तेजो बिन्दु, शिखा, योगतत्त्व, हंस आदि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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