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________________ ( ४३ ) आत्म-विकास के लिए योग एक प्रमुख साधना है । भारतीय संस्कृति के समस्त विचारकों, तत्त्व-चिन्तकों एवं मननशील ऋषि-मुनियों ने योग-साधना के महत्त्व को स्वीकार किया है। योग के सभी पहलुओं पर गहराई से सोचा-विचारा है, चिन्तन-मनन किया है। प्रस्तुत में हम भी इस बात पर प्रकाश डालना आवश्यक समझते हैं कि योग का वास्तविक अर्थ क्या रहा है ? योग-साधना एवं उसकी परम्परा क्या है ? योग के सम्बन्ध में भारतीय विचारक क्या सोचते हैं ? और उनका कैसा योगदान रहा है ? 'योग' का अर्थ 'योग' शब्द 'युज्' धातु और 'घ' प्रत्यय से बना है । संस्कृत व्याकरण में 'युज' धातु दो हैं। एक का अर्थ है - जोड़ना, संयोजित करना, और दूसरी का अर्थ है--समाधि, मनःस्थिरता। भारतीय योग-दर्शन में 'योग' शब्द का उक्त दोनों अर्थों में प्रयोग हुआ है। कुछ विचारकों ने योग का 'जोड़ने' अर्थ में प्रयोग किया है तो कुछ चिन्तकों ने उसका 'समाधि' अर्थ में भी प्रयोग किया है। किस आचार्य ने उसका किस अर्थ में प्रयोग किया है, यह उसकी परिभाषा एवं व्याख्या से स्वतः स्पष्ट हो जाता है । महर्षि पतंजलि ने 'चित्त-वृत्ति के निरोध' को योग कहा है। बौद्ध विचारकों ने योग का अर्थ 'समाधि' किया है। आचार्य हरिभद्र ने अपने योग विषयक सभी ग्रन्थों में उन सब साधनों को योग कहा है, जिनसे आत्मा की विशुद्धि होती है, कर्म-मल का नाश होता है और उसका मोक्ष के साथ संयोग होता है।' उपाध्याय यशोविजयजी ने भी योग की यही व्याख्या की है। श्री यशोविजयजी ने कहीं-कहीं पंच-समिति और त्रि-गुप्ति को भी श्रेष्ठ योग कहा है। आचार्य हरिभद्र के विचार से योग का अर्थ है-धर्म-व्यापार । आध्यात्मिक भावना और समता का विकास करने वाला, मनोविकारों का क्षय करने वाला तथा मन, वचन और कर्म को संयत रखने वाला धर्म-व्यापार ही श्रेष्ठ योग है। क्योंकि, यह धर्मव्यापार या आध्यात्मिक साधना आत्मा को मोक्ष के साथ संयोजित करती है। योग के अर्थ में-एकरूपता । वैदिक विचारधारा में 'योग' शब्द का समाधि अर्थ में प्रयोग हुआ और जैन १ युजपी योगे, गण ७, -हेमचन्द्र धातुपाठ। २ युजिं च समाधौ, गण ४, ---हेमचन्द्र धातुपाठ। ३ योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः । __ --पातंजल योगसूत्र पा० १, सू० २. ४ मोक्खेण जोयणाओ जोगो। --योग विशिका, गाथा १. ५ मोक्षण योजनादेव योगो ह्यत्र निरुच्यते । -द्वात्रिंशिका ६ अध्यात्म भावना ध्यानं समता वृत्तिसंक्षयः । मोक्षण योजनाद्योग एष श्रेष्ठो यथोत्तरम् ।। -योगबिन्दु, ३१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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