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सात वर्ष तक बिना नमक मिर्च की उर्द की दाल और जौ की रूखी रोटी खाई । गृहस्थजीवन में भी आप त्याग विराग के साथ रहने लगे । आपने रसनेन्द्रिय पर विजय प्राप्त कर ली थी ।
अपूर्व साहस
मेरे
जब मैं पाँच वर्ष की थी, तब मेरे पिताजी एक दिन मुझे ननिहाल ले जा रहे थे। रास्ते में एक दिन के लिए मौसीजी के घर पर ठहरे । वहाँ से मेरा ननिहाल दो मील था । अतः रात को बहुत जल्दी उठकर चल पड़े । वे मुझे गोद में उठाए हुए तेजी से कदम बढ़ा रहे थे । पहाड़ी रास्ता था और पगडण्डी के रास्ते से चल रहे थे । दुर्भाग्यवश रास्ता भूल गये और घने जंगल में भटक गये । फिर भी वे साहस के साथ बढ़ रहे थे कि एक झाड़ी में से शेर निकल आये । शेरों को देखते ही उन्होंने मुझे घास के गट्ठर की तरह जमीन पर एक ओर फेंक दिया और म्यान में से तलवार निकालकर शेरों पर टूट पड़े। बदन में काफी चोट लगी, फिर भी मैं भय के कारण सहम गई और शेरों के साथ चलने वाले उनके संघर्ष को देखती रही । कई घंटों तक उनमें और शेरों में युद्ध चलता रहा । आखिर, उन्होंने साहस के साथ शेरों पर विजय प्राप्त की । एक दो शेर मर गए और एक दो अत्यधिक घायल होकर झाड़ियों में जा छिपे । पिताजी का शरीर भी काफी क्षत-विक्षत हो गया था । परन्तु उन्होंने उसकी कुछ भी परवाह नहीं की। मुझे गोद में उठाया और रास्ता खोजते हुए आगे बढ़ते चले । भाग्यवश सही रास्ता मिल गया और सूर्योदय से एक डेढ़ घंटे पूर्व ही वे मुझे लेकर मेरे ननिहाल आ पहुँचे । अभी तक घर का द्वार नहीं खुला था ! अतः उसे खुलवाया, परन्तु घावों में से खून बह रहा था और वे पर्याप्त थक चुके थे । इसलिए वे न तो ठीक तरह से खड़े ही रह सके और न किसी से बात ही कर पाए। वे तो एकदम चारपाई पर गिर पड़े। उनकी यह दशा-हालत देखकर मेरे ननिहाल वाले काफी घबरा गये। फिर मैंने सारी घटना कह सुनाई। उन्होंने उनको नसीराबाद के अस्पताल में दाखिल करवाया, वहाँ कई महीने उपचार होता रहा और डॉक्टरों के सत्प्रयत्न से वे पूर्णतः स्वस्थ हो गये । स्नेह और प्रतिज्ञा
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पिताजी का स्वास्थ्य ठीक होते ही, वे पुनः मुझे घर ले गये । क्योंकि मेरी बड़ी बहिन का विवाह था । विवाह खूब धूमधाम से हो रहा था । परन्तु पिताजी सात वर्ष से बिना नमक मिर्च की उर्द की दाल और जौ की रूखी रोटी खा रहे थे । अतः उन्होंने सबके साथ भोजन नहीं किया । इससे सभी बरातियों ने तब तक भोजन भोजन करने से इनकार कर दिया, जब तक वे साथ बैठकर भोजन नहीं करते । कुछ देर तक मान-मनुहार होती रही । अन्त में सम्बन्धियों के हार्दिक स्नेह के सामने उन्हें झुकना पड़ा। उन्होंने सात वर्ष से चली आ रही परम्परा को तोड़कर उनके साथ भोजन किया । वस्तुतः हार्दिक स्नेह एवं सच्चा प्यार भी मनुष्य को विवश कर देता है ।
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