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________________ नाराज रहती थीं और अपनी देवरानी (मेरी माताजी) पर ताने एवं व्यंग्य कसती रहती थीं। माताजी शान्त स्वभाव की थीं । वह सब कुछ सहन कर लेती थीं। वह पिताजी के उग्र स्वभाव से परिचित थीं, अतः उन्होंने उनके सामने इस बात का कभी जिक्र तक नहीं किया, परन्तु एक दिन एक पड़ोसिन ने मेरे पिताजी को सारी घटना कह सुनाई । यह सुनते ही पिताजी को आवेश आ गया और वे आवेश में ही घर से चल पड़े। उन्होंने घर से कोई वस्तु साथ नहीं ली। माताजी को साथ लेकर वे घर से खाली हाथ अहमदाबाद की ओर रवाना हो गये और किसी तरह अहमदाबाद आ पहुँचे। अहमदाबाद में उनका किसी से कोई परिचय नहीं था और न पास में पैसा ही था कि कोई काम शुरू किया जाये। परन्तु अचानक उन्हें एक परिचित छींपा-कपड़े छापने वाला मिल गया। उससे चार आने उधार लिए और दालसेव का खोमचा लगाकर अपना काम शुरू किया। उसके बाद एक अस्पताल में कम्पाउण्डर का काम करने लगे। दिन में अस्पताल में काम करते, शाम को दालसेव बेचते और रात को खान (Mine) पर पहरा देते । इस तरह दिन-रात कठोर परिश्रम करके उन्होंने ११००० रुपए कमाए। यों अपने श्रम से वे अपने भाग्य को नया मोड़ देने लगे। परन्तु, दुर्भाग्य ने अभी भी उनका पीछा नहीं छोड़ा । एक दिन पहरा देते समय असावधानी के कारण वे खान (Mine) में गिर पड़े और अपने हाथ की नंगी तलवार से उनके पैर में घाव पड़ गया। उन्हें अस्पताल में दाखिल कर दिया गया। उस समय माताजी गर्भवती थीं । अतः उन्हें किशनगढ़ भेज दिया और १०-१२ दिन बाद मेरा जन्म हुआ तथा जन्म के सात दिन बाद ही. माताजी का देहान्त हो गया। अभी तक पिताजी के अपने एवं भाइयों के २३ पुत्रों के वियोग के आँसू सूख ही नहीं पाये थे कि उन पर यह वज्रपात हो गया । उस समय चार व्यक्ति उन्हें अहमदाबाद के अस्पताल से लेकर घर पर आए । वहाँ पर आते ही देखा तो घर का ताला टूटा हुआ था और दिन-रात खून-पसीना एक करके जो पैसा कमाया था, .. वह सब चोर ले गये । उनके पास कुछ भी नहीं बचा था। खैर, एक व्यक्ति से पचास रुपये उधार लेकर वे किशनगढ़ पहुँचे । परन्तु जब तक वे पहुँचे, तब तक माताजी का अन्तिम संस्कार हो 'वुका था । सन्तोषमय जीवन ..मेरी माताजी के देहान्त के बाद परिजनों ने उन्हें दूसरा विवाह करने के लिए बहुत जोर दिया। परन्तु वे अपने पुनर्विवाह करने के पक्ष में नहीं थे । वे अपना जीवन शान्ति एवं स्वतन्त्रता के साथ बिताना चाहते थे । अतः उन्होंने विवाह करने से इनकार कर दिया और सीधा-सादा एवं त्याग-निष्ठ जीवन बिताने लगे । उन्होंने दूध, दही, घी, तेल, मिष्टान, नमक और सब्जी आदि के त्याग कर दिये । आपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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