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________________ ( ३५ ) उन दिनों मेरे पिताजी किशनगढ़ रहते थे । जब वे अपने बड़े भाई से मिलने इन्दौर गए और वहां जाकर यह सुना की इन्होंने जैन धर्म स्वीकार कर लिया है, उन्हें आवेश आ गया और वे अपने बड़े भाई को बहुत कुछ खरी-खोटी सुनाने लगे । परन्तु बड़े भाई शान्त स्वभाव के थे। उन्होंने उन्हें शान्त करने का प्रयत्न किया। उन्हें जैन धर्म एवं सन्तों की विशेषता का परिचय दिया। परन्तु इससे उन्हें सन्तोष नहीं हुआ। वे स्वयं चमत्कार देखना चाहते थे । अतः सन्तों के सम्पर्क में आते रहे और नवकार मंत्र की साधना करते रहे। उनके जीवन में यह एक विशेषता थी कि वे श्रद्धा में पक्के थे। उन्हें कोई भी व्यक्ति अपने पथ से, ध्येय से विचलित नहीं कर सकता था । वे जब साधना में संलग्न होते, तब और सब कुछ भूल जाते थे । यहाँ तक कि उन्हें अपने शरीर की भी चिन्ता नहीं रहती थी। एक दिन उन्होंने अपने रूई के गोदाम में आग लगा दी और स्वयं वहीं अपने ध्यान में मस्त हो गए। चारों ओर हल्ला मच गया परन्तु वे विचलित नहीं हए । जब लोग वहाँ पहुँचे तो देखा कि आग उनके शरीर को छु ही नहीं पायी । उनके निकट में पाँच-पाँच गज तक की रूई सुरक्षित थी। इस घटना ने उनके जीवन को बदल दिया। अब वे जैन-धर्म पर पूरा विश्वास रखने लगे, श्रद्धा में दृढ़ता आ गई। आप श्रद्धानिष्ठ एवं साहसी व्यक्ति थे । घोर संकट के समय भी घबराते नहीं थे। एक बार आप किसी कार्यवश ऊँट पर जा रहे थे । जंगल में चलते-चलते ऊँट विक्षिप्त हो गया और आपके प्राण संकट में पड़ गये । परन्तु इस समय भी आप घबराये नहीं । आपने साहस के साथ एक वृक्ष की टहनी को पकड़ा और उस पर चढ़ गए । ऊँट भी उस वृक्ष के चारों ओर चक्कर काटता रहा, परन्तु उनका कुछ नहीं बिगाड़ सका । उन्हें निरन्तर ६ दिन तक वृक्ष पर ही रहना पड़ा, क्योंकि भयानक जंगल होने के कारण उस रास्ते से लोगों का आवागमन कम ही था । फिर भी आपने नमस्कार मंत्र का स्मरण किया और साहसपूर्वक वृक्ष से नीचे उतरे और ऊँट पर काबू पाया । इस तरह आपको धर्म पर अटूट श्रद्धा-निष्ठा थी। परिस्थितियों का परिवर्तन समय परिवर्तनशील है । वह सदा सर्वदा एक सा नहीं रहता । धूप-छाया की तरह परिवर्तित होता रहता है। कभी राजा को रंक बना देता है, तो कभी दरदर की खाक छानने वाले भिखारी को छत्रपति बना देता है। मनुष्य सोचता कुछ है और परिस्थितियां कुछ और ही बना देती हैं। वह संभल ही नहीं पाता कि जीवन करवटें बदलने लगता है और नई-नई समस्याएँ उसके सम्मुख आ खड़ी होती हैं । पूज्य पिताश्री का समय आनन्द से बीत रहा था, परन्तु एकाएक परिस्थितियाँ बदलने लगीं और उन्हें अपने जीवन में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। प्लेग के समय घर की बहुत सी पूजी जन-सेवा में खर्च हो गयी थी। घर का जेवर एवं जमीन आदि भी बेच दी गई थी। इससे उनकी भाभीजी काफी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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