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________________ ( ३८ ) निर्भयता बहिन के विवाह-कार्य से निवृत्त होकर पिताजी एक निकट के सम्बन्धी के विवाह में शामिल होने जा रहे थे। मैं भी साथ थी। हम बैलगाड़ी में जा रहे थे । रास्ते में एक नदी पड़ती थी। उसे पार करते समय बलों के पैर उखड़ गए और गाड़ीवान भी उन्हें नहीं संभाल पाया। इस संकट के समय भी वे घबराए नहीं । डरना तो उन्होंने सीखा ही नहीं था। अतः साहस के साथ गाड़ी से कूद पड़े और बैलों की लगाम पकड़कर गाड़ी को नदी से पार कर दिया । परन्तु, यह क्या ? एक सफेद रंग का सर्प उनके पैरों से चिपटा हुआ था। सर्प को देखते ही मैं चीख उठी परन्तु वे विचलित नहीं हुए और न डरे ही। उन्होंने निर्द्वन्द्व भाव से सर्प को हाथ से खींचा और पानी में फेंक दिया। अन्तिम वियोग जब मैं साढ़े ग्यारह वर्ष की थी, तब मेरा विवाह कर दिया गया । दो वर्ष बड़े आनन्द में बीत गये। विवाह के बाद अभी तक मेरा गौना नहीं हुआ था। उसकी तैयारियां हो रही थी कि अचानक उनके देहावसान का समाचार मिला। यह समाचार सुनकर पिताजी के मन पर बहुत आघात लगा। उन्होंने अपने जीवन में अनेक वियोग सहे, परन्तु यह सबसे कठिन आघात था और यों कहिए-गृहस्थजीवन में घटने वाला अन्तिम वियोग था। उनके मन में मेरे भविष्य की अत्यधिक चिन्ता एवं वेदना थी। साधना के पथ पर । उनकी मृत्यु के १० या ११ दिन बाद परम श्रद्धया महासती श्री सरदारकुंवर जी म० (मेरी गुरुणी जी म०) अजमेर में पधारों और मुझे मांगलिक सुनाने आई । मेरी अन्तर्वेदना देखकर उनका हृदय भर आया। उन्होंने मुझे सान्त्वना दी और जीवन का सही मार्ग बताने का प्रयास किया। इसके एक वर्ष बाद जब मैं अपने मायके दादिया गाँव में थी, तब भी श्रद्धेय गुरुणी जी म. किशनगढ़ पधारों और पिताजी की आग्रह भरी विनती स्वीकार करके वे मुझे दर्शन देने दादिया गाँव . पहुँचौं, और यहीं पर मेरे मन में श्रमण-साधना का बीज अंकुरित होने लगा। ___इसके पश्चात् मेरे पिताजी मुझे लेकर नोखा गाँव (जोधपुर) में गुरुणी जी म० के दर्शनों के लिए पहुंचे और यहीं मेरे मन में दीक्षा ग्रहण करने का भाव जगा तथा मैंने अपना दृढ़ निश्चय पिताजी के सामने प्रकट कर कर दिया । उस समय नोखा गाँव से कुछ दूर कुचेरा में स्व० स्वामी जी श्री हजारीमल जी महाराज विराजमान थे। पूज्य पिताजी उनके चरणों में पहुँचे और उनके मन में दीक्षा लेने की भावना जागरित हो उठी। उसी समय मेरे ससुराल वालों को अजमेर तार दे दिया कि वह मेरे साथ दीक्षा ले रही है। बहुत प्रयत्न के बाद हम दोनों को दीक्षा स्वीकार करने की आज्ञा मिल गई। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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