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२५६ | योगशतक -सद्गुण सम्पन्न पुरुषों के प्रति प्रमोद-भाव-उन्हें देखकर मन में प्रसन्नता का अनुभव करना, दुःखियों के प्रति करुणा-भाव, अविनीत-उद्दण्ड या उद्धत जनों के प्रति उदासीन भाव रखना चाहिए।
[ ८० ] एसो चेवेत्थ कमो उचियपवित्तीए वन्निओ साहू। इहरा ऽ समंजसतं तहा तहाऽठाणविणिओगा ॥
उचित प्रवृत्ति-योगाभ्यासानुकूल आचरणीय विधि-विधान, भावनानुभावन आदि के सन्दर्भ में यहाँ जो क्रम वर्णित हुआ है, साधकों के लिए वह ग्रहण करने योग्य है । यदि समुचित क्रमानुरूप अभ्यास न चले, विपरीत रीति से चले तो साधना में सामंजस्य नहीं रह पाता। माहार
[ ८१ ] साहारणो पुण विही सुक्काहारो इमस्स विन्नेओ।
अन्नत्थ ओयएसो सव्वासंपदकरी भिक्खा ॥
वैराग्यवान् पुरुष के लिए सामान्यतः रूखा-सूखा भोजन करने का विधान है। साथ ही साथ सर्वसम्पन्नताप्रद-परम श्रेयस्कर-आत्मोन्मुखी जीवन की निर्बन्ध पोषिका भिक्षा का भी विधान है, जिसका अन्यत्र वर्णन है।
[ २ ] वणलेवो धम्मेणं उचियत्तं तग्गयं निओगेण ।
एत्थं अवेक्खियव्वं इहरा जोगो त्ति बोसफलो ॥ भिक्षा व्रण-लेप के समान है। फोड़े पर, उसे मिटाने हेतु जैसे किसी दवा का लेप किया जाता है, उसी प्रकार भूख, प्यास आदि मिटाने हेतु भिक्षा ग्रहण की जाती है । दवा चाहे कितनी ही कीमती क्यों न हो, फोड़े पर उतनी ही लगाई जाती है, जितनी आवश्यक हो। उसी प्रकार भिक्षा में प्राप्त हो रहे खाद्य, पेय आदि पदार्थ कितने ही सुस्वादु एवं सरस क्यों न
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