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________________ सच्चिन्तन | २५५ उवओगो पुण एत्थं बिन्नेओ जो समीवजोगो त्ति। विहियकिरियागओ खलु अवितहभावो उ सव्वत्थ ॥ प्रस्तुत सन्दर्भ में समागत उपयोग शब्द को उप समीप, योगव्यापार, प्रवर्तन- इस अर्थ में लेते हैं तो इसका अभिप्राय शास्त्र-प्रतिपादित क्रिया में सत्य भाव रखना-उसे सत्य मानना, वैसी निष्ठा लिये गन्तव्य पथ पर अग्रसर होना निष्पन्न होता है। [७७ ] एवं अम्भासाओ तत्तं परिणमय चित्तथेज्जं च । जायइ भावाणुगामी सिव सुहसंसाहगं परमं ॥ इस प्रकार अभ्यास करने से भावानुरूप तत्त्व-परिणति-तत्त्वसाक्षात्कार होता है, चित्त में स्थिरता आती है तथा परम-सर्वोत्तम, अनुपम मोक्ष-सुख प्राप्त होता है । सच्चिन्तन [ ७८ ]. अहवा ओहेणं चिय भणियविहाणाओ चेव भावेज्जा । सत्ताइएसु मित्ताइए गुणे परमसंविग्गो । चिन्तन का एक और (उपयोगी तथा सुन्दर) प्रकार है-परम संविग्न-अत्यन्त संवेग या वैराग्य युक्त साधक शास्त्र-प्रतिपादित विधान के अनुसार सामष्टिक रूप में प्राणी मात्र के प्रति मैत्री आदि गुणनिष्पन्न भावनाओं से अनुभावित रहे। [ ७६ ] . सत्तेसु ताव मेत्तिं तहा पमोयं गुणाहिएसुति । करुणामज्झत्थत्ते किलिस्समाणाविणीएसु ॥ सभी प्राणियों के प्रति मैत्री-भाव, गुणाधिक-गुणों के कारण विशिष्ट Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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