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योग के अधिकारी | २३५
अपने इष्ट-इच्छित-लक्षित नगर की ओर यथाशक्ति जाता हुआ पुरुष जैसे इष्टपुरपथिक कहा जाता है, उसी प्रकार गुरु विनय आदि में प्रवृत्त साधक, जो सम्यक्ज्ञान आदि की परिपूर्ण उपलब्धिरूप योग को आत्मसात् नहीं कर सका है, पर उस पर यथाशक्ति गतिशील होने के नाते योगी कहा जाता है। योग के अधिकारी
- [ ८ ] . अहिगारिणो उवाएण होइ सिद्धी समत्थवत्थुम्मि ।
फलपगरिसभावाओ विसेसओ जोगमग्गम्मि ॥ - अधिकारी-योग्य प्रयोक्ता को समर्थ वस्तु में जो वस्तु जो कार्य निष्पन्न करने में सक्षम है, उपाय द्वारा सिद्धि-सफलता प्राप्त होती है। उसका उत्तम परिणाम आता है। विशेषतः योग-मार्ग में तो ऐसा ही है। अर्थात् योग-साधना में योग्य अधिकारी या साधक को उपायरत रहने से सिद्धि प्राप्त होती है तथा आत्म-अभ्युदय के रूप में उसकी उत्तम फल-निष्पत्ति प्रस्फुटित होती है।
[६ ] - अहिगारी पुण एत्थं विन्नेओ अपुणबंधगाइ त्ति ।
तह तह नियत्तपयई अहिगारोऽणेगभेओ त्ति ॥
जहाँ योग-मार्ग में अपुनर्बन्धक-चरम पुद्गलावर्त में अवस्थित अथवा संसार का अपना अन्तिम कालखण्ड बिताने की स्थिति में विद्यमान जीव अधिकारी है, ऐसा जानना चाहिए । कर्म-प्रकृति की निवृत्ति या क्षयोपशम आदि की स्थिति के अनुसार वह अधिकार अनेक प्रकार का होता है।
अपुनर्बन्धक जैन पारिभाषिक शब्द है। उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है-जीव कर्म-बन्ध करता है। कर्मों की अवधि तथा फल देने की शक्ति आदि का आधार कषाय की तीव्रता या मन्दता है। कषाय जितनी तीव्रता या मन्दता लिये होगा, फल उतना ही कटु या मधुर होगा, अवधि उतनी ही लम्बी या छोटी होगी।
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