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________________ २३४ | योगशतक रुचि-आन्तरिक स्पृहा, निष्ठा सम्यक् दर्शन है। शास्त्रोक्त विधि-निषेध के अनुरूप उसका आचरण-जीवन में क्रियान्वयन सम्यक्चारित्र है । अर्थात् शास्त्रों में जिन कार्यों के करने का विधान है, उन्हें यथाविधि करना तथा जिनका निषेध है, उन्हें न करना-सम्यक्चारित्र कहा जाता है। व्यवहार-योग [ ४ ] ववहारओ य एसो विन्नेओ एयकारणाणं पि। जो संबंधो सो वि य कारणकज्जोवयाराओ॥ कारण में कार्य के उपचार की दृष्टि से सम्यक्ज्ञान, सम्यक्दर्शन तथा सम्यक्चारित्र के कारणों का आत्मा के साथ सम्बन्ध भी व्यवहारतः योग कहा जाता है। गुरुविणओ सुस्सूसाइया य विहिणा उ धम्मसत्थेसु । तह चेवाणुट्ठाणं विहिपडिसेहेसु जह सत्ती ॥ धर्मशास्त्रों में बतायी गयी विधि के अनुरूप गुरुजनों का विनय, शुश्रूषा-सेवा, परिचर्या, उनसे तत्त्व-ज्ञान सुनने की उत्कंठा तथा अपनी क्षमता के अनुरूप शास्त्रोक्त विधि-निषेध का पालन अर्थात् शास्त्रविहित आचरण करना और शास्त्रनिषिद्ध आचरण न करना व्यवहार-योग है। एतो चिय कालेणं नियमा सिद्धी पगिट्ठरूवाणं । । सन्नाणाईण तहा जायइ अणुबंधभावेणं ॥ इससे-व्यवहार-योग के अनुसरण से कालक्रम से प्रकृष्टरूपउत्तरोत्तर विशेष शुद्धि प्राप्त करते सम्यक्ज्ञान आदि की-निश्चय-योग की सिद्धि अविच्छिन्न रूप में निष्पन्न होती है। [ ७ ] अद्धणं गच्छंतो सम्मं सत्तीए इठ्ठपुरपहिओ । जह तह गुरुविणयाइसु पयट्टओ एत्य जोगित्ति ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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