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________________ मंगलाचरण योगशत क [ जोगिनाहं नमिऊण वोच्छामि जोगले सं १ ] सुजोग संदंसगं महावीरं । जोगज्झयणाणुसारेण ॥ योगियों के स्वामी - परम आराध्य, सुयोग- संदर्शक - आत्मोत्थानकारी उत्तम योग-मार्ग दिखानेवाले भगवान् महावीर को नमस्कार कर मैं ( अपने द्वारा किये गये ) योगशास्त्रों के अध्ययन के अनुरूप संक्षेप में योग का विवेचन करू गा । निश्चय-योग [ २ ] निच्छयओ इह जोगो सन्नाणाईण मोक्खेण जोयणाओ निद्दिट्ठो Jain Education International तिन्ह संबंधो । जोगिना हेहि ॥ निश्चय - दृष्टि से सद्ज्ञान - सम्यक्ज्ञान आदि अर्थात् सम्यक् ज्ञान, सम्यक्दर्शन तथा सम्यक्चारित्र - इन तीनों का आत्मा के साथ सम्बन्ध होना योग है, ऐसा योगीश्वरों ने बतलाया है । वह आत्मा का मोक्ष के साथ योजन - योग करता है - आत्मा को मोक्ष से जोड़ता है, इसलिए उसकी 'योग 'संज्ञा है । [ ३ ] सन्नाणं वत्थुगओ बोहो सद्दंसणं तु तत्थ रूई । सच्चरणमणुट्ठाणं विहिपरिसेहाणुगं तत्थ || वस्तुगत बोध - वस्तुस्वरूप का यथार्थं बोध सम्यक्ज्ञान है । उसमें For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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