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२३६ | योगशतक
__ जैन-दर्शन में प्रत्येक कर्म की जघन्य-कम से कम तथा उत्कृष्टअधिक से अधिक दो प्रकार की आवधिक स्थितियां मानी गयी हैं। आठों कर्मों में मोहनीय कर्म प्रधान है। मोहनीय की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ सागरोपम है। इसका अभिप्राय यह हुआ, जो जीव अत्यन्त तीव्र कषाय से युक्त होता है, वह सत्तर कोड़ाकोड़ सागरोपम स्थिति का मोहनीय कर्म बाँधता है । कई जीव ऐसे होते हैं, जिनका कषाय मन्द होता जाता है, वे कम अवधि का कर्म-बन्ध करते हैं । कषाय-मन्दता के क्रम की एक ऐसी स्थिति होती है, जहाँ कर्म-बन्ध बहुत हलका होता है।
जीव चरम-पुद्गल-परावर्त-स्थिति में होता है, उस समय कषाय बहुत ही मन्द रहता है। वह जीव तीव्रतम कषाय या संक्लेशमय परिणामयुक्त नहीं बनता। फलतः वह फिर सत्तर कोडाकोड़ सागरोपम स्थिति के मोहनीय कर्म का बन्ध नहीं करता। जैन-दर्शन की भाषा में उसे अपुनर्बन्धक कहा जाता है। उसकी दूसरी संज्ञा शुक्लपाक्षिक भी है, क्योंकि मोहनीय कर्म के तीव्र भाव का अन्धेरा या कालिमा वहाँ रह नहीं जाती। आत्मा के सहज गुणों का उदय-उज्ज्वलता या शुक्लता प्रकाश में आने लगती है। अपुनर्बन्धकता की स्थिति पा लेने के बाद जीवन सन्मार्गाभिमुख हो जाता है। उसकी मोहरागमयी कर्मग्रन्थि टूट जाती है। सम्यक्दर्शन प्राप्त हो जाता है। फिर क्रमशः आत्मरति तथा परविरति के पथ पर आगे बढता हुआ वह जीवन का अन्तिम लक्ष्य साध लेता है।
यहाँ प्रयुक्त चरम पुद्गलावर्त शब्द को भी समझ लेना चाहिए। यह भी जैन पारिभाषिक शब्द है। जैन-दर्शन की ऐसी मान्यता है कि जीव अनादि काल से शरीर, मन, वचन आदि द्वारा संसार के पुद्गलों का किसी न किसी रूप में ग्रहण तथा विसर्जन करता आ रहा है। कोई जीव विश्व के समस्त पुद्गलों का एक बार किसी न किसी रूप में ग्रहण व विसर्जन कर चुकता है-सबका भोग कर लेता है, वह एक पुद्गल-परावर्त कहा जाता है।
यह पुद्गलों के ग्रहण-त्याग का क्रम जीव के अनादि-काल से चलता आ रहा है । यो सामान्यतः जीव इस प्रकार के अनन्त पुद्गल-परावर्तों में
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