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________________ परिणामित्व | २२६ एक ही आत्मा का स्वीकार है । वहाँ कर्मबद्ध आत्मा तथा कर्ममुक्त आत्मा - ऐसा भेद घटित नहीं होता । यदि बद्ध, मुक्त का भेद किया जाये तो अद्वैत खण्डित होता है, वह द्वौत बन जाता है । यह सिद्धान्त संगत नहीं है । द्वैतवादी सिद्धान्त में भी इसी प्रकार अपनी कोटि की असंगति है । [ ५१४ ] एकस्य अंशावतार कुत. निरंश एक इत्युक्तः स अद्वैतवादी सिद्धान्त में ऐसा नहीं माना जाता कि एक ही आत्मा में अंश रूप में अनेक भाग हैं । यदि ऐसा माना जाये तो मात्र एक ही आत्मा या केवलाद्वैत की वास्तविकता नहीं ठहरती । सिद्धान्ततः आत्मा निरंश या अखण्ड है । यह निरंशता या अखण्डता ही अद्वैतवाद का आधार है । [ ५१५ ] विकारित्वमंशानां एकत्व हानित: 1 चाद्वं तनिबन्धनम् ॥ मुक्तां नोपपद्यते 1 तेषां चेहाविकारित्वे सन्नोत्या मुक्ततांशिन: 11 यदि ऐसा माना जाये कि भिन्न-भिन्न आत्माएँ मुक्तात्मा-परमात्मा की अंश रूप हैं तो उनमें विकार संगत नहीं होता । मुक्तात्मा अविकारी है । अविकारी के अंश अधिकारी ही होते हैं, विकारी नहीं । यदि कहा जाये कि वे अंशरूप आत्माएँ अविकारी हैं तो तर्क -युक्ति पूर्वक यह सिद्ध करना होगा कि आत्मा की मुक्ति व्यष्टिरूप अंशों से निष्पन्न समष्टि रूप में होती है । [ ५१६ ] समुद्रोमिसमत्वं च यदंशानां प्रकल्प्यते न हि तद्भेदकाभावे सम्यग् युक्त्योपपद्यते ॥ परमात्मा के अंशरूप में अभिमत आत्माएँ विभिन्न लहरों के समान हैं, उपमा द्वारा ऐसा जो तद्गत तथ्य भी संगत नहीं है । जैसे समुद्र लहरों प्रतीत होता है, वैसे परमात्मा इन आत्माओं से विभक्त या प्रभावित नहीं एक ही समुद्र से उठती विवेचन किया जाता है, से विभक्त या प्रभावित होता । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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