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२३० | योगबिन्दु
[ ५१७ ] सवाद्यमत्र हेतुः स्यात् तात्त्विके भेद एव हि । प्रागभावादिसंसिद्धर्न सर्वथाऽन्यथा त्रयम् ॥
आद्य-निर्विकार-शुद्ध सत्, अंश तथा भेदक-ये तीन तत्त्वतः जहाँ विद्यमान रहते हैं, वहाँ प्रागभाव' आदि की सिद्धि होती है। वस्तु के भावत्व की सिद्धि इन अभावों के होने, न होने के चिन्तन पर आधृत है।
[ ५१८ ] सत्त्वाद्यभेद एकान्ताद् यदि तभेददर्शनम् । भिन्नार्थमसदेवेति
तद्ववेद्वं तदर्शनम् ॥ यदि सत्त्व-अस्तित्व, सत्ता आदि एकान्त रूप में अभिन्न हो अर्थात् जिस वस्तु का जैसा अस्तित्व है, वह सदा एकान्ततः उसी रूप में रहे तो जगत् में जो भिन्न-भिन्न पदार्थ, प्रयोजन तथा उद्देश्य-गत भेद दिखाई देते हैं, वे असत्-अयथार्थ, कल्पित या मिथ्या हैं, उसी प्रकार अद्वैत दर्शन भी। क्योंकि वह भी आत्मक्य की ऐकान्तिक मान्यता पर अवस्थित है।
[५१६ ] यदा नार्थान्तरं तत्त्वं विद्यते किञ्चिदात्मनम् ।
मालिन्यकारि तत्त्वेन न तदा बन्धसंभवः ॥
यदि अर्थान्तर-कोई विजातीय पदार्थ आत्मा को मलिन-कलुषित बनाने वाला नहीं है तो आत्मा के बद्ध होने की-बन्ध में आने की सम्भावना नहीं रहती।
1 ५२० ] असत्यस्मिन् कुतो. मुक्तिबन्धाभावनिबन्धना । मुक्तमुक्तिर्न यन्न्याय्या भावेऽस्यातिप्रसङ्गिता ॥
बन्धन के न होने पर मुक्ति कहाँ से होगी। वह तो बन्धन के अपगत होने या मिटने पर होती है। जब बन्धन है ही नहीं, तब अपगत होने या १. अभाव न्यायदर्शन द्वारा स्वीकृत सात पदार्थों में एक है। उसके चार भेद हैं
प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव, अत्यन्ताभाव, अन्योन्याभाव । -तर्क भाषा पृष्ठ २२१-२२४ (चौखम्बा संस्कृत सीरीज आफिस, वाराणसी-१)
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