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________________ २२८ | योगबिन्दु माया-मोह से विभ्रान्तचेता पुरुषों के लिए पुत्र, स्त्री आदि का संसार है और उन विद्वानों के लिए, जो योगसाधना-रहित हैं, शास्त्र संसार है । [ ५१० ] कृतमत्र प्रसङ्ग ेन प्रायेणोक्तं तु वाञ्छितम् । अनेनैवानुसारेण विज्ञयं शेषमन्यतः " अब विस्तार में जाना अपेक्षित नहीं है । जो वाञ्छित - अभीष्ट थाकहना चाहते थे, प्राय: कह दिया है । इसी के अनुसार, अन्यान्य स्रोतों से और जानना चाहिए, समझना चाहिए । [ ५११ ] तु योगभेदोपवर्णनम् । मूल शुद्धि के आधार पर योग के भिन्न-भिन्न भेदों का यहाँ उत्तम माता-पिता के श्रेष्ठ पुत्र की विशेषताओं का ज्यों विवेचन किया गया है । [ ५१२ ] वान्ध्येयभेदोपवर्णन | कल्पमित्यतः मूलशुद्ध यभावेन भेदसाम्येsपि वाचिके ॥ एवं मूलशुद्ध येह चाहमात्रादिसत्पुत्रभेदव्यावर्णनोपमम् अन्यद् न अन्य परम्पराओं में भी योग के ऐसे भेद व्याख्यात हुए हैं पर वहाँ मूल शुद्धि का अभाव है अत: शाब्दिक दृष्टि से वे हमारे सदृश होते हुए भी वन्ध्या-पुत्र की विशेषताओं के वर्णन की तरह कल्पना मात्र - निसार हैं । वन्ध्या के पुत्र होता ही नहीं, फिर उस (पुत्र) की विशेषताओं की बात ही कहाँ फलित हो । | इसी प्रकार जहाँ मूलतः ही शुद्धि नहीं है, वहाँ योग कैसे सध, फिर उसके भेदों की विवेचना का प्रश्न ही कहाँ ? [ ५१३ ] पुरुषाद्वै ते यथेह तदन्याभावनादेव तद् द्वैतेऽपि निरूप्यताम् ॥ अद्वैतवादी दर्शन में केवल 'एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म' के अनुसार केवल Jain Education International बद्धमुक्ताविशेषत: For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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