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________________ परिणामित्व | २२७ मुक्तात्मा द्वारा जो आनन्दानुभव किया जाता है, वह अवाच्य-अनिर्वचनीय-वाणी द्वारा न कहे जा सकने योग्य है । जैसे एक कुमारिका स्त्रीसुख नहीं जानती, एक जन्मान्ध पुरुष घट (आदि) को भलीभाँति नहीं जानता, उसी प्रकार अयोगी-योगसाधनाशून्य पुरुष मुक्ति का आनन्द नहीं जानता। [ ५०६ ] । योगस्यैतत् फलं मुख्यमैकान्तिकमनुत्तरम् । आत्यन्तिकं परं ब्रह्म योगविद्भिरुदाहृतम् ॥ योग का मुख्य- वास्तविक फल परं ब्रह्म प्राप्ति या मुक्तावस्थारूप आनन्द हैं, जो ऐकान्तिक-निश्चित रूप में अवश्य टिकने वाला, आत्यन्तिक-नित्य टिकने वाला, अनुत्तर-जिससे बढ़कर दूसरा कोई नहीं-- सर्वोत्तम होता है । योगवेत्ताओं ने ऐसा बतलाया है। [ ५०७ ] सद्गोचरादिसंशुद्धिरेषाऽऽलोच्येह धोधनः । साध्वी चेत् प्रतिपत्तव्या विद्वत्ताफलकाङ क्षिभिः ॥ प्रज्ञा ही जिनकी संपत्ति है, जो अपनी विद्वत्ता का यथार्थ फल चाहते हैं, ऐसे सुयोग्य पुरुषों को योग द्वारा साध्य लक्ष्य-शुद्धि-शुद्धिपूर्वक लक्ष्यप्राप्ति के सन्दर्भ में, जो प्रस्तुत ग्रन्थ में व्याख्यात है, आलोचन-चिन्तनविमर्श करना चाहिए। उन्हें समीचीन प्रतीत हो तो उसे अपनाना चाहिए। [ ५०८ ] विद्वत्तायाः फलं नान्यत् सद्योगाभ्यासतः परम् । तथा च शास्त्रसंसार उक्तो विमलबुद्धिभिः ॥ उत्तम योग का अभ्यास ही विद्वत्ता का महान् फल है, दूसरा नहीं। यदि ऐसा नहीं हो तो निर्मलचेता सत्पुरुषों के कथनानुसार शास्त्र संसार है। [ ५०६ ] पुत्रदारादिसंसारः पुंसां संमूढचेतसाम् । विदुषां शास्त्रसंसारः सद्योगरहितात्मनाम् ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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