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सर्वज्ञवाद | २०७ उपयुक्त अभिमत विख्यात बौद्ध तार्किक आचार्य धर्मकीर्ति का है, जिसकी उन्होंने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ प्रमाणवार्तिक में चर्चा की है।
[ ४४३ ] एवमायु क्तसन्नीत्या हेयाद्यपि च तत्त्वतः । तत्त्वस्यासर्वदर्शी न वेत्त्यावरणभावतः ॥
उक्त मन्तव्य के समाधान के रूप में ग्रन्थकार का कथन है कि प्रस्तुत सन्दी में युक्तिपूर्वक समीचीनतया चर्चा की जा चुकी है कि हेय तथा उपादेय के सम्बन्ध में सर्वथा यथावत् रूप में जान पाना वैसे किसी पुरुष के लिए सम्भव नहीं होता, जो सर्वज्ञ नहीं है। क्योंकि वैसे पुरुष के ज्ञान पर कर्मावरण रहता है, जिससे वह (ज्ञान) अप्रतिहतगति नहीं होता। फलतः वह पुरुष वैसा सब जानने में सक्षम नहीं होता, जैसा कि सर्वज्ञ द्वारा सम्भव है।
[ ४४४ ] बुद्ध यध्यवसितं यस्मादर्थं चेतयते पुमान् ।
इतीष्टं चेतना चेह संवित् सिद्धा जगत्त्रये ॥
बुद्धि अपने द्वारा गृहीत पदार्थ पुरुष (आत्मा) की चेतना में प्रस्थापित करती है, जिससे पुरुष उसे जानता है। पर, यह कैसे सम्भव हो। क्योंकि चेतना ही ज्ञान है, यह तीनों लोकों में सिद्ध है। फिर बुद्धि द्वारा चेतना में रखा जाना, आत्मा द्वारा जाना जाना इत्यादि में समीचीन संगति प्रतीत नहीं होती।
यहाँ यह ज्ञातव्य है, सांख्य दर्शन के अनुसार अहंकार तथा मनरूप अन्तःकरणयुक्त बुद्धि सब विषयों को ग्रहण करती है। अत: बुद्धि, अहंकार तथा मन करण कहे जाते हैं । विषय-ग्रहण हेतु इन्हें प्रमुख द्वार के रूप में स्वीकार किया गया है। बाकी इन्द्रिय आदि उनके सहयोगी हैं, गौण हैं ।
___ इसका कुछ और स्पष्टीकरण यों है-दीपक की तरह ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेन्द्रिय, अहंकार तथा मन पुरुष के लिए पदार्थों को प्रकाशित कर बुद्धि को देते हैं, बुद्धि में सन्निहित करते हैं। पुरुष द्वारा उनका ग्रहण बद्धि से
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