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२०८ | योगबिन्दु साधित होता है। अर्थात् बुद्धि उन्हें पुरुष तक पहुंचाती है। वही पुरुष और प्रकृति का विषय-विभाग कराती है, उनकी सूक्ष्म भिन्नता सिद्ध करती है।'
चेतना तथा संवित् की समानता बताते हुए प्रस्तुत पद्य में इस मन्तव्य का निरसन किया गया है। आगे के पद्यों में विशेष स्पष्टीकरण है ।
[ ४४५ ] | चैतन्यं च निजं रूपं पुरुषस्योदितं यतः । अत आवरणाभावे नैतत् स्वफलकृत् कुतः॥
सांख्य सिद्धान्त के अनुसार चेतना पुरुष या आत्मा का स्वरूप है। जब आवरण -पुरुष के स्वरूप-स्वभाव को आवृत करने वाले उसको रोकने वाले हेतु नहीं हैं तो फिर चेतना अपना कार्य कैसे न करे, समझ में नहीं आता।
[ ४४६-४४७ ] न निमित्तवियोगेन तद्ध यावरणसङ्गतम् । न च तत्तत्स्वभावत्वात् संवेदनमिदं यतः ॥
चैतन्यमेव विज्ञानमिति नास्माकमागमः । कितुतन्महतो धर्मः प्राकृतश्च महानपि ॥
सांख्य दार्शनिकों का यह तर्क है कि मोक्ष प्राप्त हो जाने पर पुरुष को पदार्थों का ज्ञान नहीं होता। क्योंकि ज्ञान होने के निमित्त कारण मन का वहाँ अस्तित्व नहीं होता, जो (मन) प्रकृति से उत्पन्न है। मोक्षावस्था में
सान्तःकरणा बुद्धिः सर्वं विषयमवगाहते यस्मात् । तस्मात् त्रिविधं करणं द्वारि द्वाराणि शेषाणि ।। एते प्रदीपकल्पाः परस्परविलक्षणा गुणविशेषाः । कृत्स्नं पुरुषस्यार्थं प्रकाश्य बुद्धौ प्रयच्छन्ति । सर्व प्रत्युपभोगं यस्मात् पुरुषस्य साधयति बुद्धिः । सैव च विशिनष्टि पुनः प्रधान पुरुषान्तरं सूक्ष्मम् ॥
-सांख्यकारिका ३५-३७
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