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________________ २०६ | योगबिन्दु तस्मादनुष्ठानगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । कोटसङ्ख्यापरिज्ञानं तस्य नः क्वोपयुज्यते ॥ हेयोपादेयतत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविष्टो न तु सर्वस्य वेदकः ॥ दूरं पश्यतु वा मा वा तत्त्वमिष्टं तु पश्यतु । प्रमाणं दूरदर्शी चेदेते धानुपास्महे ॥ बुद्धिशाली अन्य तार्किक ने इस प्रसंग में अपनी तीक्ष्ण बुद्धि द्वारा मधुर शब्दों में जो मन्तव्य प्रकट किया है, वास्तव में वह सारहीन है। वह मन्तव्य इस प्रकार है "अज्ञानी पुरुष के उपदेश का अनुसरण कर कहीं बिडम्बना में न पड़ जाएँ, धोखा न खाएँ, ऐसी शंका कर समझदार लोग किसी ज्ञानी की खोज करते हैं, जिसके वचनों पर विश्वास किया जा सके। यों जिस ज्ञानी पुरुष की बात मानने को तैयार हों, उसके ज्ञान के सम्बन्ध में यह जानना चाहिए कि वह करणीय अनुष्ठान से सम्बद्ध है या नहीं। उसका ज्ञान तो कीड़ों की संख्या की गणना करने का भी हो सकता है। कीड़ों की संख्या बहुत बड़ी है । उनकी गणना करने का कार्य भी कम भारी नहीं है पर उसका हमारे लिए कहाँ उपयोग है ? हमारे लिए तो वह सर्वथा अनुपयोगी है । हमें उससे क्या लाभ ? क्या हेय-त्यागने योग्य तथा क्या उपादेय-ग्रहण करने योग्य है, हेय को छोड़ने और उपादेय को अपनाने के क्या उपाय हैं-ऐसा करने का क्या विधिक्रम है -ऐसा जो जानता है, वही हमारे लिए वाञ्छनीय है, उपयोगी है, प्रमाणभूत है । जो और सब कुछ जानता हो, हमें वह इष्ट नहीं है। जो बहुत दूर की वस्तु को देख पाये या न देख पाए, हमें उससे क्या ? हमें तो उसपे प्रयोजन है, जो इष्ट-अभीप्सित, वाञ्छनीय या उपयोगी तत्त्व को देखता है, जानता है। यदि दूरदर्शी-बहुत दूर तक देख सकने वाला ही प्रमाणभूत हो तो अच्छा है, हम गोधों की उपासना-पूजा करें, जिनमें बहुत दूर तक देखने की क्षमता होती है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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