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________________ सर्वत्र तस्याखिलविशेषेषु [ ४३५ ] सर्वसामान्यज्ञानाज्ज्ञ यत्वसिद्धितः । तदेतन्न्यायसङ्गतम् ॥ सर्वसामान्य ज्ञान से ज्ञ ेयत्व की सिद्धि होती है । अर्थात् सर्वसामान्य ज्ञान द्वारा सामान्यतः सभी जानने योग्य पदार्थ ज्ञाता की क्षमता के अनुसार जाने जा सकते हैं । इससे यह सिद्ध होता है कि विशिष्ट ज्ञानयुक्त आत्मा सभी वस्तुओं की सभी विशेषताओं को जान सकती है । [ ४३६ ] सामान्यवद् विशेषाणां स्वभावो ज्ञेयभावतः । ज्ञायते स च साक्षात्वाद् विना विज्ञायते कथम् ॥ ज्ञ ेय भाव से - ज्ञ ेयत्व की अपेक्षा से विशेषों का स्वभाव भी सामान्य जैसा ही है । जब सामान्य प्रत्यक्ष रूप में जाने जाते हैं तो विशेषों का भी ज्ञान प्रत्यक्ष से ही सम्भव है । अतः ऐसी आत्मा भी होनी चाहिए, जो सर्वज्ञ हो । क्योंकि लोकगत समस्त पदार्थ अपनी विशेषताओं सहित सर्वज्ञ द्वारा ही जाने जा सकते हैं । सर्वज्ञवाद | २०५ [ ४३७ ] अतोऽयं ज्ञस्वभावत्वात् सर्वज्ञः स्यान्नियोगतः । नान्यथा ज्ञत्वमस्येति सूक्ष्मबुद्धया निरूप्यताम् ॥ ज्ञस्वभावत्व-ज्ञातृस्वभावता के कारण - स्वभावतः ज्ञाता होने के कारण कोई आत्मा निश्चय ही सर्वज्ञाता या सर्वज्ञ हो, यह युक्तियुक्त है । अन्यथा सबको सर्वथा जानने वाला कोई न होने से आत्मा का ज्ञातृत्व समग्रतया सिद्ध नहीं होता । सूक्ष्म बुद्धि से इस पर चिन्तन करें । [ ४३८-४४२ ] एवं च तत्त्वतोऽसार यदुक्त इह व्यतिकरे किञ्चिच्चारुबुद्ध या कश्चित् ज्ञानवान् मृग्यते आज्ञोपदेशकरणे Jain Education International मतिशालिना । सुभाषितम् ॥ तदुक्तप्रतिपत्तये । विप्रलम्भनशङ्किभिः ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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