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२०४ | योगबिन्दु णीय कर्म से आवृत्त रहता है तो ज्ञय पदार्थों के जानने में उसकी प्रवृत्ति नहीं होती।
[ ४३२ ] ज्ञो ज्ञये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धके । दाह्येऽग्निर्दाहको न स्यात् कथमप्रतिबन्धकः॥
प्रतिबन्धक-बाधक का अभाव हो तो ज्ञ-जानने में सक्षम पुरुष ज्ञेय-जानने योग्य पदार्थ को जानने में कैसे असमर्थ रहे ? अप्रतिबन्धबाधारहित अग्नि जलाने योग्य वस्तु कैसे नहीं जलाए ? अर्थात् बाधक हेतु न होने पर अग्नि जिस प्रकार जलाने का कार्य करती है, उसी प्रकार ज्ञाता बाधक न होने पर जानने का कार्य करता है।
[ ४३३ ] न देशविप्रकर्षोऽस्य युज्यते प्रतिबन्धकः । तथानुभवसिद्धत्वादग्नेरिव
सुनीतितः ॥ केवलज्ञान या सर्वज्ञता द्वारा जानने के उपक्रम में स्थान आदि का व्यवधान बाधक नहीं होता, जैसे अग्नि की दाहकता में होता है।
कहने का अभिप्राय यह है कि देशकाल आदि बाह्य प्रतिबन्धक हेतु केवलज्ञान की कार्यकारिता या गति को रोक नहीं सकते ।
[ ४३४ ] अंशतस्त्वेष दृष्टान्तो धर्ममात्रत्वदर्शकः ।
अदाह्यादहनाद्येवमत . एव न बाधकम् ॥ यहाँ जो अग्नि का दृष्टान्त दिया गया है, वह अंशत: व्याप्त है, आंशिक है । वह मात्र धर्म-स्वभाव का दिग्दर्शक है। जैसे अग्नि का धर्म जलाना है, उसी प्रकार ज्ञान का धर्म जानना है।
कुछ ऐसी वस्तुएँ होती हैं, जो अग्नि द्वारा जलायी नहीं जा सकतीं, कुछ ऐसी स्थितियाँ होती हैं, जिनके कारण अग्नि जलाने योग्य वस्तुओं को भी जला नहीं सकती। अग्नि का यह अदाहकता, केवलज्ञान के प्रसंग में उसकी अकार्यकारिता ख्यापित नहीं करती। क्योंकि यह दृष्टान्त समग्रता लिये हुए नहीं है।
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