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________________ १६६ | योगबिन्दु [ ४११ ] उत्साहान्निश्चयाद् धैर्यात् सन्तोषात् तत्त्वदर्शनात् । मनेर्जनपदत्यागात् षड्भिर्योगः प्रसिद्ध यति ॥ · उत्साह, निश्चय, धैर्य, सन्तोष, तत्त्व-दर्शन तथा जनपद-त्याग - अपने परिचित प्रदेश, स्थान आदि का त्याग अथवा साधारण लौकिक जनों द्वारा स्वीकृत जीवन-क्रम का परिवर्जन- ये छ: योग सधने के हेतु हैं । [ ४१२ ] आगमेनानुमानेन च I त्रिधा प्रकल्पयन् प्रज्ञां लभते योगमुत्तमम् ॥ आगम-- शास्त्रपरिशीलन, अनुमान, ध्यान के अभ्यास एवं रसतन्मयता व अनुभूतिजनित आनन्दपूर्वक बुद्धि का प्रयोग करता हुआ, बुद्धि को संस्कारित बनाता हुआ साधक उत्तम योग प्राप्त करता है । [ ४१३ ] तदयोगः आत्मा कर्माणि फलं द्विधा वियोगश्च ध्यानाभ्यास - रसेन आत्मा, कर्म तथा कारण पूर्वक होनेवाला उसका सम्बन्ध, शुभ एवं अशुभ फल, कर्मों का आत्मा से पार्थक्य - अलगाव यह सब उनके आत्मा और कर्म के स्वभाव से घटित होता है । सहेतुरखिलस्तथा । सर्वं तत्तत्स्वभावतः ॥ [ ४१४ ] अस्मिन् पुरुषकारोऽपि सत्येव सफलो अन्यथा न्यायवैगुण्याद् अतोऽकरणनियमात् वृत्तयोऽस्मिन्निरुध्यन्ते Jain Education International पुरुषार्थ भी तभी सफल होता है, जब वह आत्मा, कर्म आदि के स्वभाव के अनुरूप हो । वैसा न होने से - वस्तु स्वभाव के विपरीत होने से यह न्यायानुमोदित नहीं है कि वह कार्यकर हो अर्थात् उसकी कार्यकारिता सिद्ध नहीं होती । अतः उसे प्रशस्त नहीं माना जाता । [ ४१५ ] भवेत् । भवन्नपि न शस्यते ॥ तत्तद्वस्तुगतात्तथा । तास्तास्तद्बीजसम्भवाः ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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