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________________ वृत्तसंक्षय | १६७ यदि विभिन्न वस्तुओं के स्वभाव को कार्य साधने में कारण न माना जाए, एक मात्र पुरुषार्थ को ही माना जाए तो आत्मा में विविध कर्मरूप बीजों से उत्पन्न होने वाली वृत्तियाँ पुरुषार्थ द्वारा निरस्त हो जायेंगी । [ ४१६ ] ग्रन्थिभेदे यथैवायं बन्धहेतु परं प्रति । ज्ञेयस्तद्धे तुगोचरः ॥ नरकादिगतिष्वेवं 'जिसका ग्रन्थि-भेद हो गया हो, वहाँ कर्मों के अति तीव्र बन्ध होने का कोई हेतु नहीं रहता, उक्त मान्यता से वहाँ भी बाधा उत्पन्न होती है । उसी प्रकार नरक आदि गतियों में भी हेतु की अकरणता रहती है । [ ४१७ ] अन्यथाssत्यन्तिको न युज्यते हि अन्य कारणों की अकरणता मानी जाए तो आत्यन्तिक मृत्यु — मोक्ष तथा कर्मानुरूप बार-बार अनेक योनियों में जन्म लेना, जो आगमप्रतिपादित है, घटित नहीं होता । [ ४१८ ] भावं हेतुमस्य प्रधानकरुणारूपं गतिस्तथा । मृत्युर्भूयस्त सन्न्यायादित्यादि समयोदितम् ॥ परं Jain Education International ब्रुवते सूक्ष्म-द्रष्टा ज्ञानियों का कथन है कि प्राणियों के प्रति असदाचरण, पापमय विचार पवित्र मनोभावों से अपगत होते हैं, जिनमें करुणा का प्रमुख स्थान है । [ ४१६ ] सत्त्वाद्यागोनिवर्तनम् । सूक्ष्मदर्शिनः ॥ एवान्यैः समाधिरेष सम्यक्प्रकर्षरूपेण पातञ्जल योगियों द्वारा उपर्युक्त योगोत्कर्ष सम्प्रज्ञात समाधि के रूप अभिहित हुआ है । शाब्दिक व्युत्पत्ति के अनुसार 'सम्' का अर्थ सम्यक्, 'प्र' का अर्थ प्रकृष्ट - उत्कृष्ट तथा 'ज्ञात' का अर्थ ज्ञानयुक्त है । इसका सम्प्रज्ञातोऽभिधीयते । वृत्त्यर्थज्ञानतस्तथा ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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