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१८८ | योगबिन्दु
[ ३८४-३८५ ] पर्वोपलक्षितो यद् वा पुत्रंजीवकमालया । नासाग्रस्थितया दृष्टया प्रशान्तेनान्तरात्मना ।। विधाने चेतसो वृत्तिस्तद्वर्णेषु यथेष्यते ।
अर्थे चालम्बने चैव त्यागश्चोपप्लवे सति ॥
जप के समय हाथ का अंगूठा अपनी अंगुलियों के पोरों (पैरवों) पर अथवा रूद्राक्ष की माला के मनकों पर चलता रहे। दृष्टि नासिका के अग्र भाग पर टिकी रहे । अन्तरात्मा में प्रशान्त भाव रहे। चित्त-वृत्ति जप के विषय, अक्षर, तद्गत अर्थ, आलम्बन-विषयगत मूल आधार के साथ संलग्न रहे । उप-लव-मानसिक बाधा या विघ्न की अनुभूति हो, तब जप करना बन्द कर देना चाहिए।
[ ३८६ ] मिथ्याचारपरित्याग आश्वासात तत्र वर्तनम् । तच्छुद्धिकामता चेति त्यागोऽत्यागोऽयमीदृशः ॥
मानसिक बाधा आदि आने पर जो जप का त्याग किया जाता है, वह (त्याग) वास्तव में त्याग न होकर अत्याग की श्रेणी में आता है । क्योंकि उससे मिथ्याचार-केवल कृत्रिम रूप में करिष्यमाण सत्परिणामशून्य क्रिया का त्याग होता है । उस त्याग के फलस्वरूप अन्तर्विश्वास या आस्थापूर्वक पुनः जप करने की वृत्ति सुदृढ़ होती है । जप में सदा शुद्धि बनी रहे, यह भावना जागरित होती है।
[३८७ ] यथाप्रतिज्ञमस्येह कालमानं प्रकीतितम् ।
अतो ह्यकरणे ऽप्यत्र भाववृत्तिं विदुर्बुधाः ॥
जप की समयावधि अपनी-अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार है । अर्थात् जितने समय जप करने की भावना हो, साधक उतने समय के लिए जप करने की प्रतिज्ञा करे । तदनुरूप यथाविधि जप संपादित करे ।
विद्वानों का ऐसा अभिमत है कि यों प्रतिज्ञापूर्वक जप करने वाले
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