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________________ [ ३८० ] तत्त्व चिन्तनमध्यात्म मौचित्यादियुतस्य उक्त विचित्रमेतच्च तथावस्थादिभेदतः ॥ जैसा व्याख्यात हुआ है, औचित्ययुक्त - समुचित, शास्त्रसमर्थित क्रिया-प्रक्रिया में संलग्न पुरुष द्वारा किया जाता तत्त्व-चिन्तन अध्यात्म है । अवस्था आदि के भेद से वह विविध प्रकार का है । जप [ ३५१ ] आदिकर्मकमाश्रित्य देवतानुग्रहाङ्गत्वादतोऽयमभिधीयते - योग के आदि - प्रारम्भिक कर्म के रूप में अथवा जो पुरुष योग में प्रविष्ट हो रहा हो, नवाभ्यासी हो, उसकी दृष्टि से जप अध्यात्म हैअध्यात्म का प्रारम्भिक रूप है । जप देवता के अनुग्रह का अंग है— उससे देवानुग्रह प्राप्त होता है । जप सम्बन्धी विवेचन यहाँ प्रस्तुत है । जप | १८७ जप: सन्मन्त्रविषयः दृष्ट: पापापहारोऽस्माद् जपो ह्यध्यात्ममुच्यते । [ ३८२ ] यथा ॥ स चोक्तो देवतास्तवः । विषापहरणं उत्तम मन्त्र जप का विषय है । वह देव स्तवन के रूप में होता है । जैसे मन्त्र- प्रयोग से सर्प आदि का विष दूर हो जाता है, उसी प्रकार मन्त्रजप से पाप का अपहार - अपगम हो जाता है- आत्मा से पाप दूर हो जाते हैं । Jain Education International [ ३८३ ] देवतापुरतो वाऽपि जले वाकलुषात्मनि । विशिष्टद्र मकुजे वा कर्तव्योऽयं सतां मतः ॥ सत्पुरुषों का अभिमत है कि जप देवता के समक्ष, शुद्ध जलमय नदी,. सरोवर, कूप वापी आदि के तट पर या किसी विशिष्ट द्रुम-कुंज में - मण्डप की तरह छाये वृक्ष युक्त स्थान में करना चाहिए । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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