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________________ १८६ | योगबिन्दु जो चरम-शरीरी है-वर्तमान शरीर के बाद जिसे और शरीर धारण नहीं करना है, मुक्त होना है, जिसके संपराय-वियोग-कषाय-वियोग सध गया है-जिसके कषाय नहीं रहे हैं, उसके सांपरायिक आस्रव-बन्ध नहीं होता। वैसी स्थिति में अन्य-अति सामान्य आस्रव के गतिमान् रहने पर भी वह अनास्रव कहा जाता है, क्योंकि वह बन्ध बहुत मन्द, अल्प एवं हल्का होता है। जैन-दर्शन के अनुसार बारहवें क्षीणमोह तथा तेरहवें संयोग केवली गुणस्थान में इसी प्रकार का कर्म-बन्ध होता है । प्रस्तुत विवेचन के अनुसार जो पारिभाषिक रूप में अनास्रव-कोटि में आता है । [ ३७८ ] निश्चयेनात्र शब्दार्थः सर्वत्र व्यवहारतः। निश्चय-व्यवहारौ च द्वावप्यभिमतार्थदौ ॥ अनास्रव का अर्थ निश्चय नय के अनुसार सर्वथा आस्रव-रहित अवस्था है और व्यवहार-नय के अनुसार सांपरायिक आस्रव-रहित अवस्था, जो लगभग आस्रव-रहितता के निकट होती है, वहाँ से व्यक्ति शीघ्र अनास्रवदशा प्राप्त कर लेता है। ___ व्यवहार-नय द्वारा प्रतिपादित अर्थ भी निश्चय-नय के विपरीत नहीं जाता, सर्वत्र तत्संगत ही होता है । यों निश्चय तथा व्यवहार-दोनों ही अभिमत- यथार्थतः स्वीकृत अर्थ ही प्रकट करते हैं। उपसंहार [ ३७६ ] .. संक्षेपात् सफलो योग इति संदशितो ह्ययम्। आद्यन्तौ तु पुनः स्पष्टं बमोऽस्यैव विशेषतः॥ संक्षेप में योग का फल सहित वर्णन किया जा चुका है। आदिअध्यात्म तथा अन्त-वृत्तिसंक्षय का विशेष रूप से पुनः स्पष्टीकरण कर रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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