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________________ सास्रव : अनास्रव | १८५ अन्य विचारकों ने भी मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त साधकों के लिए कण्टक'विघ्न, ज्वर-विघ्न तथा मोक्ष-विघ्न के रूप में आनेवाली बाधाओं की चर्चा की है। राहगीर के पैर में काँटा चुभ जाए तो उसकी गति रुक जाती है, यदि वह यात्रा के बीच में ज्वर-ग्रस्त हो जाए तो भी आगे चलने में बाधा आजाती है और यदि वह दिग्भ्रान्त हो जाए-उसे दिशाओं का यथावत् ज्ञान न रहे तो आगे चलना कठिन हो जाता है, ऐसी ही विघ्नपूर्ण स्थितियाँ साधक के समक्ष आती हैं, जिन्हें उसे पार करते हुए आगे बढ़ना होता है। सास्त्रव : अनानव [ ३७५ ] अस्यैव सास्रवः प्रोक्तो बहुजन्मान्तरावहः । पूर्वव्यावणितन्यायादेकजन्मा त्वनास्रवः ॥ योग का पूर्व-वर्णित एक भेद सास्रवयोग है, जो उस साधक के सधता है, जिसके अन्तिम मंजिल-मोक्ष तक पहुंचने में अभी अनेक जन्म पार करना बाकी होता है। पहले किये गये विवेचन के अनुसार निरास्रव-योग उस साधक के सधता है, जिसे केवल एक ही जन्म में से गुजरना होता है, आगे जन्म नहीं लेना पड़ता। [ ३७६ ] आस्रवो बन्धहेतुत्वाद् बन्ध एवेह यन्मतः । स सांपरायिको मुख्यस्तदेषोऽर्थोऽस्य संगतः॥ आस्रव कर्म बन्ध का हेतु है, इसलिए एक दृष्टि से वह बन्ध ही है। वस्तुतः कर्म-बन्ध का मुख्य कारण कषाय-कषायानुप्रेरित आस्रव है । बन्ध के साथ उसी की वास्तविक संगति है। [ ३७७ ] एवं चरमदेहस्य संपरायवियोगतः । इत्वरावभावेऽपि स तथाऽनास्रवो मतः।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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