________________
१८४ | योगबिन्दु आता है, वह (चरम पुद्गल-परावर्त से पूर्व का अन्तिम आवर्त) सकृत् आवर्त या सकृत् आवर्तन कहा जाता है।
[ ३७१ ] चारित्रिणस्तु विज्ञ यः शुद्ध यपेक्षो यथोत्तरम् । ध्यानादिरूपो नियमात् तथा तात्त्विक एव तु ॥
चारित्री को ध्यान, समता तथा वृत्तिसंक्षय संज्ञक योग उसकी शुद्धिआन्तरिक निर्मलता के अनुरूप निश्चित रूप में प्राप्त होते हैं। वे तात्त्विक होते हैं।
[ ३७२ ] अस्यव त्वनपायस्य सानुबन्धस्तथा स्मृतः । यथोदितक्रमेणव सापायस्य तथाऽपरः ॥
अपाय-विघ्न या साधनाविपरोत स्थिति से जो बाधित नहीं हैं, उनको उत्तरवर्ती विकास शृंखला सहित यथावत् रूप में योग प्राप्त होता है। जो अपाययुक्त हैं उनके लिए ऐसा नहीं होता है ।
[ ३७३ ] अपायमाहुः कर्मैव निरपायाः पुरातनम् । पापाशयकरं चित्रं निरुपक्रमसंज्ञकम् ॥
अपायरहित-निर्बाधरूप में साधना-परायण महापुरुषों ने अतीत में संचित पापाशयकर हिंसा, असत्य, चौर्य, लोभ, अहंकार, छल, क्रोध, द्वष, व्यभिचार आदि से सम्बद्ध विविध कर्मों को अपाय कहा है। वे निरुपक्रम संज्ञा से भी अभिहित हुए हैं। उनका फल अवश्य भोगना होता है।
__ [ ३७४ ] कण्टकज्वरमोहैस्तु समो विघ्नः प्रकीर्तितः। मोक्षमार्गप्रवृत्तानामत
एवापरैरपि ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org