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________________ तात्त्विक : अतात्त्विक | १८३ वृत्ति-संक्षय से सर्वज्ञता, शैलेशी-अवस्था, मानसिक, कायिक, वाचिक प्रवृत्तियों का सर्वथा निरोध, मेरुवत् अप्रकम्प, अडोल स्थिति तथा निर्बाध, आनन्दविधायक-परमानन्दमय मोक्ष-पद की प्राप्ति होती है। जैन-दर्शन के अनुसार तेरहवें गुणस्थान में सर्वज्ञता तथा चवदहवें गुणस्थान में शैलेशी अवस्था प्राप्त होती है। तात्त्विक : अतात्त्विक [ ३६८ ] तात्त्विको ऽतात्त्विक श्चायमिति यच्चोदितं पुरा । तस्येदानीं यथायोगं योजनाऽत्राभिधीयते ॥ तात्त्विक तथा अतात्त्विक यों पहले योग के जो भेद बताये हैं, बे किस-किस श्रेणी के पुरुषों के सधते हैं, इत्यादि दृष्टिकोण से यहाँ उनका विवेचन किया जा रहा है । [ ३६६ ] अपुनर्बन्धकस्यायं व्यवहारेण तात्त्विकः । अध्यात्मभावनारूपो निश्चयेनोत्तरस्य तु ॥ अध्यात्मयोग तथा भावनायोग अपुनर्बन्धक के व्यवहार-दृष्टि से और चारित्री के निश्चय-दृष्टि से सधते है । इस श्लोक में सम्यक्दृष्टि का उल्लेख नहीं है । टीकाकार के अनुसार प्रस्तुत सन्दर्भ में उसे अपुनबंधक के साथ जोड़ा जा सकता है । - [ ३७० ] सकृतदावर्तनादीनामतात्त्विक उदाहृतः प्रत्यपायफलप्रायस्तथावेषादिमात्रतः सकृत् आवर्तन में विद्यमान तथा उन जैसे और व्यक्तियों के अध्यात्मयोग एवं भावना-योग अतात्त्विक होते हैं। क्योंकि उनमें साधकों जैसा वेष आदि केवल बाह्य प्रदर्शन होता है । जो आचरण वे करते हैं, प्रायः अनिष्टकर तथा दुर्भाग्यपूर्ण फलप्रद होता है। जिस पुद्गल-परावर्त को पार कर व्यक्ति चरम-पुद्गल-परावर्त में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001935
Book TitleJain Yog Granth Chatushtay
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorChhaganlal Shastri
PublisherHajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
Publication Year1982
Total Pages384
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size18 MB
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